________________
आत्म-समर्पण का मूल्य | १२६
चरणों में कर दिया जाता है तो फिर सच्चे माने में साधक की अपनी आशाओं-आकांक्षाओं, वासनाओं-तृष्णाओं या स्वार्थपरक महत्वकांक्षाओं के लिए कोई स्थान नहीं रहता । परमात्म-दर्शन, परमगति-मोक्ष की प्राप्ति या आत्मोपलब्धि आदि किसी भी अन्तिम ध्येय के लिए समर्पित साधक को अपनी कामनाएँ तथा काम-वासनाएँ सर्वप्रथम त्याग देनी पड़ती हैं।
समर्पित जीवन का रहस्य परमात्मा या चरम ध्येय-मोक्ष अथवा उत्कृष्टता के प्रति समर्पित व्यक्ति में अहंकर्तृत्व की भी कोई गुंजाइस नहीं रहती। जिस प्रकार गणधर गौतम श्रमण भगवान् महावीर के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गए थे, तब उनमें अहंकार-ममकार भी नहीं रहा । भगवान् महावीर के संघ के चौदह हजार साधुओं का आधिपत्य संभालने पर भी, तथा स्वयं चार ज्ञान के एवं अनेक लब्धियों के धारक होते हए भी वे प्रत्येक अवसर पर अपने परम आराध्य भगवान् महावीर को आगे रखते थे, उन्हें ही प्रत्येक सत्कार्य का श्रेय देते थे। उनके जीवन में-रोम-रोम में प्रभु महावीर रम गए थे। वे महावीर और उनके जीवन दर्शन में ओतप्रोत हो गए थे। वे अपनी प्रसिद्धि, अपनी मान्यता, अपनी धारणा या आग्रही वृत्ति का प्रचार-प्रसार न करके, प्रभुमहावीर के सिद्धान्तों और मान्यताओं या धारणाओं का प्रचार करते थे। इतने उच्च पद पर अधिष्ठित होते हुए भी वे अपने आपको प्रभु के चरणसेवक एवं विनम्र साधक समझते थे। अपनी भूल या गलती को स्वीकारने में गणधर गौतम को जरा भी हिचक नहीं होती थी। उपासक आनन्द को जब उत्कृष्ट साधना के फलस्वरूप अवधिज्ञान प्राप्त हो गया था, तब गौतम स्वामी ने सहज भाव से कह दिया था कि गृहस्थ को ऐसा अवधिज्ञान नहीं हो सकता, किन्तु जब भगवान महावीर ने गणधर गौतम को उनकी भूल बताई तो तुरन्त स्वीकार करके तत्काल आनन्द श्रमणोपासक से क्षमायाचना करने और अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप प्रकट करने के लिए चल पड़े ।
यह है-- समर्पित जीवन का ज्वलन्त उदाहरण !
दूसरी ओर-मंखलीपुत्र गोशालक भी भगवान महावीर का शिष्य बना था, किन्तु उसका जीवन प्रभु-चरणों में समर्पित नहीं था। वह आत्मसमर्पण की साधना से काफी दूर था। यही कारण था कि वह महत्वाकांक्षी अहंत्व-ममत्व से प्रेरित होकर स्वयं तीर्थंकर बनने की लालसा एवं प्रसिद्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org