________________
उपासना का राजमार्ग | ११५
चिन्तन-स्मरण से भी उपास्य के निकट इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि मनुष्य जिस वस्तु का चिन्तन, स्मरण और निदिध्यासन बार-बार करता है, वैसा ही बन जाता है । लट और भौंरी का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। भौंरी लट को गुंजारव करके धीरे-धीरे अपने जैसा बना लेती है। अर्थात्--लट अपना शरीर त्याग कर भ्रमरी बन जाती है। इसी प्रकार देव, गुरु और धर्म (उपास्य) का स्मरणचिन्तन करते-करते मनुष्य भी तद्रप बन सकता है। तन्मयता एवं प्रगाढ़ एकाग्रता से जिस वस्तु का ध्यान मानव करता है, उस वस्तु का हुबहू चित्र उसकी आँखों के समक्ष तैरने लगता है । अमेरिकन नागरिक टेड सेरियस जिस वस्तु का ध्यान करके केमरे के लैंस में दृष्टि कर देता था, उसी का फोटो केमरे पर आ जाता । उपास्य का ध्यान करने से उपासक का तादाम्य बढ़ जाने का यह ज्वलन्त प्रमाण है। उपासना में देव और गुरु प्रत्यक्ष सामने हों तब तो सामीप्य से ही मनुष्य भागवती विशेषता प्राप्त कर लेता है, किन्तु यदि देव और गुरु परोक्ष हों तो उनका स्मरण-चिन्तन करने से मनुष्य उनके साथ तादात्म्य कर लेता है।
कहावत है.---यद् ध्यायति, तद् भवति---- मनुष्य जिसका ध्यान करता है, वही बन जाता है।
उपासना से आनन्द प्राप्ति
परमात्मा का सान्निध्य प्रत्यक्ष हो या परोक्ष दोनों ही दशा में आनन्दानुभूति कराता है। जब सांसारिक प्रियजनों के साथ उठने-बैठने में व्यक्ति को आनन्द आता है, तब परमात्मा और महात्मा (गुरुदेव) के सान्निध्य में आनन्द क्यों नहीं आएगा ? जो सच्चे मन से इनकी पर्युपासना करता है, उसे तो असीम आनन्द आता ही है किन्तु जिसका मन उपासना में नहीं लगता या जिसे आनन्द नहीं आता, समझना चाहिए कि उसने उपासना के तत्वज्ञान, आदर्श और विधि विधान को भलीभांति जाना ही नहीं है । सचमुच आत्मा और परमात्मा की एकता से जिस परमानन्द की प्राप्ति होती है, उसे पाकर जीव धन्य बन जाता है।
उपासना से परमात्म-मिलन का आनन्द लोक व्यवहार में यह देखा गया है कि आत्मीयजन बिछुड़ने के बाद जब पुनः मिलते हैं तो उस मिलन वेला से आनन्द का अनुभव होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org