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११४ | सद्धा परम दुल्लहा
हो तब तो उनके सान्निध्य में अथवा शुद्ध धर्म तत्त्व (अहिंसा सत्यादि) के सान्निध्य में रहने से व्यक्ति में निर्मलता, शुद्धता एवं विचार-आचार की पवित्रता बढ़ती जाती है।
मिट्टी में हर धातु के कण मिले रहते हैं । वे धातु-कण सूक्ष्म आकर्षण शक्ति से अपनी-अपनी जाति के धातुओं की ओर धीरे-धीरे स्वतः सरकते चले जाते हैं । धातु की जहाँ बड़ी खान होती है, उसमें अपने सजातीय धातु कणों को खींचने की एक चुम्बकीय विद्युत्धारा चलती रहती है । उन धातुकणों के खानों में पहुँचकर एकत्रित एवं पिण्डित होते रहने से उन धातुओं की मात्रा एवं महत्ता बढ़ती रहती है । यही बात परमात्मा एवं महात्मा की उपासना के विषय में कही जा सकती है। जिस प्रकार गंगा के पानी को एक नहर काटकर अन्यत्र ले जाया जाता है तो उस जल के सभी गुण वहाँ तक खिंचे चले जाते हैं, जहाँ तक नहर जाती है। इसी तरह देवाधिदेवों और गुरुओं के गुणों के स्मरण-मनन से, ध्यान उपासना के माध्यम से उनका सान्निध्य प्राप्त करने से उनके गुणों का व्यक्ति के तन, मन और वचन में तेजी से विकास होता जाएगा। उपासना का चमत्कार
आत्मा को मिट्टी में मिला हुआ धातुकण ओर परमात्मा को धातु की विशाल खान कहा जा सकता है। आत्मारूपी धातुकण उपासना के माध्यम से परमात्मारूपी खान की ओर आकर्षित होकर प्रतिदिन निकट से निकटतर सरकता रहता है, और एक दिन परमात्मारूपी खान में सम्मिलित हो जाता है। छोटा धातुकण जब तक रेत में मिला रहता है, तब तक उसका कोई मूल्य या महत्त्व नहीं रहता परन्तु जब वह घिसटते-घिसटते खान में मिल जाता है तो उसका अस्तित्व और महत्व सभी की दृष्टि में आता है। उस एकत्रित एवं पिण्डित धातु का उपयोग भी बहुत भारी होता है । इसी प्रकार आत्मा जब परमात्मा के निकट पहँचता है, तब उसमें परमात्मतत्व की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि वह परमात्म-तेज से युक्त दिखने लगता है। ऋषि-मुनियों और गौतम गणधर आदि महापुरुषों को तीर्थंकर परमात्मा के समीप रहने से इसी प्रकार की भागवती विशेषता प्राप्त हुई थी। इसीलिए प्रत्येक साधक के लिए शास्त्र में कहा गया है-'वसे गुरुकुले निच्चं' साधक गुरुकुल में निवास करे। परमात्मा की समीपता बढ़ते-बढ़ते जीव अन्ततः जीवन्मुक्त (चार घाती कर्मों से मुक्त) हो जाता है। यही उपासना का वास्तविक चमत्कार है।
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