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१०४ सद्धा परम दुल्लहा
आयवृद्धि कर लेता है, अथवा अपनी आवश्यकताओं तथा खर्च में कटौती करता है। इन तरीकों से भी आर्थिक पूर्ति न हो तो वह अभावग्रस्तों की की तुलना में स्वयं को सुखी मानकर सन्तोष करता है, किन्तु अविवेकी और बेसमझ अथवा विकृतदृष्टि वाले लोग अपनी तुलना साधन सम्पन्न से करके ईर्ष्या और असन्तोष की आग में जलते रहते हैं । अथवा मनःसमाधान न कर पाने के कारण वे दुःखी होते रहते हैं।
वस्तुतः मनुष्य का दृष्टिकोण ही सुख-दुःख, सन्तोष-असन्तोष, आनन्दसन्ताप, मित्र-शत्रु आदि का कारण है। परिष्कृत और विकृत दृष्टि का प्रतिफल
जो व्यक्ति दूसरों के अवगुण और अपने ही गुण देखता है, ईर्ष्यावश दूसरों के गुणों का अभिनन्दनसमर्थन न करके उनकी नुक्ताचीनी या बदनामी करता है। उसे सारा विश्व शत्रु दिखाई देता है और धीरे-धीरे वह भी अनेक दुर्गुणों का शिकार बन जाता है। विवेकी और दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति दुर्गुणी या घृणित व्यक्ति या वस्तु में से भी गुणों का पौधा पल्लवित करता है और दुर्गुणों का कचरा उखाड़ फेंकता है। वह दूसरों के गुण और अपने अवगुण देखता है। इस कारण वह विश्व को अपना मित्र और सहयोगी बना लेता है। मनुष्य की आन्तरिक पवित्रता, उदात्त भावना, और गुणग्राही दृष्टि जीवन के बाह्य व्यवहार में परिलक्षित होती है। स्पष्ट है कि निकृष्ट और विकृत दृष्टि या विचारधारा कलह और कटुता के बीज बोती है, वह उस व्यक्ति को अनादर, असहयोग, अविश्वास और मुसीबत का पात्र बना देती है ; जबकि गुणग्राही एवं सुलझी हुई दृष्टि से सहानुभूति, दया, कोमलता और सरलता के कारण व्यक्ति सबका आदर, विश्वास, सहयोग और सहानुभूति पाता है । उसके जीवन में आनन्दमयी रसानुभूति होने लगती है । यथार्थ दृष्टिप्राप्त और विकृत दृष्टियुक्त मनुष्य की वृत्ति
यदि मनुष्य दष्टि सम्पन्न हो तो जीवन में पग-पग पर उसे प्रसन्नता, सफलता, शुभाशा और तृप्ति मिल सकती है, किन्तु इसके विपरीत विकृत दृष्टि सम्पन्न मानव अपनी आन्तरिक उलझनों, महत्त्वाकांक्षाओं, प्रतिकूल परिस्थितियों और मानसिक विकृतियों के कारण इतना उद्विग्न, अशान्त और निराश हो जाता है कि एक-एक दिन गुजारना मुश्किल हो जाता है । कहना होगा कि यदि जीवन में प्रसन्नता शुभाशा, सफलता और तृप्ति के बदले उद्विग्नता, खिन्नता, निराशा, असफलता और अतृप्ति होती है तो
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