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१०६ | सद्धा परम दुल्लहा
नहीं दे देते। वास्तविक एवं स्वाधीन आत्मिक सुख भावना में है । भावनाओं को परिष्कृत करने, ऊर्ध्वगामी एवं उदात्त बनाने से तथा विचारधारा में तात्विक एवं आदर्शवादी पुट दे देने से अध्यात्मिक विकास तो होता ही है, प्रत्येक वस्तु का यथार्थ स्वरूप दृष्टिगोचर हो जाता है । अमृत की सुदृढ़ भावना होने पर विष भी अमृत रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति भी अनुकूल प्रतीत होने लगती है ।
सम्यग्दृष्टि परिस्थिति का गुलाम नहीं
यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य ने जिस प्रकार की आशा और आकांक्षा कर रखी है, घटना क्रम उसी प्रकार से घटित होता चले । मनुष्य जो चाहे, वही होना चाहिए, इसके लिए प्रकृति के नियम बँधे हुए नहीं हैं, कर्म के कानून भी ऐसे हैं कि वे कोई छूट - छाट नहीं देते, जिस रूप में जैसे, जिस भाव से कर्म बांधे हुए हैं, उसी रूप में, वैसे ही प्रतिफल के रूप में वे मनुष्य के सामने आते हैं । परिस्थितियों में आश्चर्यजनक उतार-चढ़ाव आते हैं, घटना क्रम भी बहुत शीघ्र बदल जाता है । पहले दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को अयोध्या का राज्य मिलते वाला था, किन्तु दूसरे ही, दिन वनगमन की परिस्थिति आगई । किन्तु श्रीराम के मन में न तो राज्य मिलने की प्रसन्नता थी और न ही वनगमन का दुःख था । दोनों ही परिस्थितियों में वे सम थे । 1
परिस्थिति के उतार-चढ़ाव में दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति फूलता या घबराता नहीं, वह कटुता और मधुरता दोनों को मन की उपज मानता है, अतः दोनों प्रकार के स्वाद में मन को समझाकर सन्तुष्ट कर लेता है । उसके लिए दिन की भी उपयोगिता है, रात्रि की भी । प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार के संयोगों या प्रसंगों में वह स्वस्थ और संतुलित रहता है । अप्रिय प्रसंग आए ही नहीं, सदा प्रिय प्रसंग या संयोग ही सामने आएँ, ऐसा सोचना बाल बुद्धि का काम है । जो संसार का या जीवन का वास्तविक स्वरूप समझते नहीं, ही ऐसा एकांगी और एक पक्षीय चिन्तन करते हैं और दुःखी होते हैं ।
जीवन की सफलता साधनों पर नहीं, दृष्टि पर निर्भर मानव जीवन का सही और पर्याप्त लाभ लेने के लिए मनुष्य को
१ प्रसन्नतायां न गताभिषेकस्तथा न मम्लौ वनवासदुःखतः । मुखाम्बुज श्री रघुनन्दनस्य सदाऽस्तु मे मंजुल - मंगलप्रदा ||
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- गोस्वामी तुलसीदास
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