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दृष्टि बदलिए, सृष्टि बदलेगी | ६६
हितकर होगा | अगर मनुष्य की दृष्टि संसारोन्मुखी है तो वह यथार्थ नहीं है, आत्महितैषी नहीं है, कर्मक्षयकारिणी नहीं है, धर्ममयी नहीं है; मोक्षाभिमुखी नहीं है, वह पतनोन्मुखी दृष्टि है । उससे जन्म-मरणरूप संसार की वृद्धि होगी, संसार का ह्रास नहीं होगा। इसके विपरीत यदि मनुष्य की दृष्टि मोक्षाभिमुखी है, तो वह आस्रव और बन्ध के बदले संवर और निर्जरा को महत्व देगा । वह आस्रव को रोकने का प्रयास करेगा, पूर्वकृत पापकर्मों से मुक्त होने, तथा उनसे छुटकारा पाने अथवा उन्हें आते हुए रोकने, घटाने एवं उन्हें क्षय करने का प्रयास करेगा । अर्थात् दृष्टि शुद्ध एवं ऊर्ध्वमुखी होगी तो व्यक्ति की स्वयं की सृष्टि भी शुद्ध एवं ऊर्ध्वमुखी होगी । उसका प्रत्येक कार्य शुद्ध दृष्टिपूर्वक होगा ।
पहले सृष्टि बदलने से हानियाँ कुछ दर्शन ऐसे हैं, जो पहले सृष्टि को बदलने की बात कहते हैं । उनका कहना है कि मनुष्य पहले सृष्टि को बदले । उनका अभिप्राय यह है कि मनुष्य पहले सृजन को बदले । अर्थात् - वह अपने रहन-सहन, स्टैंडर्ड (स्तर) को बदले । वह अपने तथा परिवार, समाज और राष्ट्र के जीवनप्रवाह को नया मोड़ दे । उसमें परिवर्तन करे ।
परन्तु देखा यह गया है कि इस विचारधारा पर चलने वाले लोगों ने प्रकृति के लयबद्ध रूप में अबाधगति से चलते हुए नैसर्गिक सृजन को, वास्तविक सहज सौन्दर्य को शुद्ध दृष्टि से विचार किये बिना व्यक्ति, परिवार एवं तथाकथित समाज के जीवन में कृत्रिम सृजन किया है ।
इस कृत्रिम सृष्टि का कारण ही है - दृष्टिविहीन सृष्टि । शरीर की कृत्रिम साज-सज्जा, परिवार का कृत्रिम खर्चीला एवं स्वास्थ्य नियमों के प्रतिकूल रहन-सहन, उद्धत एवं भड़कीला वेष, बाह्य आडम्बर, खान-पान में केवल जीभ को स्वादिष्ट लगने वाले व्यंजन, पक्वान्न एवं खाद्यान्न इंद्रियों at मोहक एवं आकर्षक लगने वाली अश्लील नृत्य-गीत एवं दृश्य को अपनाने की प्रवृत्ति, ये सब वर्तमान युग के दृष्टिविहीन मानव की कृत्रिम सृष्टि के नमूने हैं
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दृष्टिविहीन सृष्टि के दुष्परिणाम यह कृत्रिम सृष्टि क्यों है ? इस पर गहराई से छानबीन कर लें ।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर में अपार गन्दगी भरी है। इस गंदगी को - मल-मूत्र, रक्त, पित्त, मांस, मज्जा, स्वेद आदि को ढकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने कर्मानुसार काली, गोरी चमड़ी मिली
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