________________
दृष्टि बदलिए, सृष्टि बदलेगी | -१
अर्थात् हे जनबान्धव प्रभो ! मैंने आपके वचन भी सुने, आपकी पूजा भक्ति भी की, आपकी प्रतिकृति का अवलोकन-दर्शन भी किया, किन्तु आपको वास्तविक रूप में हृदय में भक्तिपूर्वक धारण ही नहीं किया, इससे मैं जन्म, जरा, मृत्यु, आधि-व्याधि आदि दुःखों का भाजन बना, क्योंकि भावशून्य -- सम्यग्दृष्टि रहित क्रियाएँ यथार्थ रूप में प्रतिफलित नहीं होतीं ।
कई लोग दृष्टिमृढ़तावश बाह्य वैभव, समवसरण में देवों द्वारा रचित सिंहासन पर बैठकर उपदेशप्रदान, देवों का आगमन, छत्र - चामरादि वैभव, दुन्दुभिनाद, देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, अथवा उनका वज्रऋषभनाराच संहनन एवं समचतुरस्र संस्थान, तथा इन्द्रों द्वारा सेवा-भक्ति आदि को तीर्थंकर का स्वरूप मानते हैं। क्या इन्हीं बाह्य वैभवों या शरीर के रूप-रंग में ही तीर्थंकरत्व है ? किन्तु तीर्थंकरत्व है वीतरागता में, निर्मोहता में, निष्कषायता में आत्मा की विशुद्ध स्थिति में, अनन्तज्ञान - अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की निष्पत्ति में । यह सम्यग्दृष्टि जिसे प्राप्त नहीं होती, वह तीर्थंकरों की बाह्यविभूतियों और चमत्कारों या आडम्बरों में ही उलझकर उनकी भक्ति भी दृष्टिविहित होकर करता है । परन्तु सम्यग्दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि तीर्थंकर देवों के आत्मिक गुणों की ओर जाती है, उसका लक्ष्य आत्मिक गुणों को प्राप्त करने का रहता है ।
1
सम्यग्दृष्टि की भ्रमरवत् गुणों पर दृष्टि
भ्रमर फूलों के बाह्य रंग रूप या आकृति को नहीं देखता, न ही वह फूलों के साथ कांटों को देखता है। वह सिर्फ फूल की सुगन्ध को देखता है । वह यह भी नहीं देखता कि फूल उद्यान में खिले हैं, या वन में या घर के एक कोने में ? मधुकर की दृष्टि केवल फूलों के मकरन्द एवं सुगन्ध पर रहती है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की दृष्टि महापुरुषों एवं धर्मगुरुओं के रूप-रंग, जाति - कौम, क्षेत्र या बाह्य वैभव, आडम्बर आदि पर नहीं रहती, उसकी दृष्टि महापुरुषों में निहित क्षमा, दया, करुणा, ज्ञान-दर्शन- चारित्र आदि आत्म- गुणों पर रहती है। ये चारित्रिक गुण भी व्यक्ति में तभी आते है, जबकि सम्यक्हष्टि प्राप्त हो ।
श्रीकृष्ण ने सड़ी हुई कुतिया की दुर्गन्ध की ओर ध्यान न देकर उसकी स्वच्छ दंतपंक्ति की ही प्रशंसा की थी । इसीलिए भगवान् महावीर ने चाण्डाल जाति में उत्पन्न हरिकेशबलमुनि के विषय में कहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org