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३० | सद्धा परम दुल्लहा हो, बाल की खाल निकालने वाला पंडित क्यों न हो । पंडित और ज्ञानी में यही मुख्य अन्तर है। विविध शास्त्रों व ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन करने वाला पंडित बन सकता है और लच्छेदार भाषा में श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध करनेवाला प्रोफेसर भी बन सकता है। पर जब तक आगम या शास्त्र के प्रति श्रद्धा नहीं होगी तब तक वह ज्ञानी नहीं हो सकता।
एक महाशय अहिंसा व शाकाहार पर खूब रोचक लच्छेदार भाषण दे रहे थे, भाषण देते-देते इतने प्रचण्ड व उग्र हो गये कि सामने की मेज पर हाथ का जोरदार मुक्का मारा तो मेज चरमरा कर टूट गई । पसीना आने लगा, पसीना पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकाला तो उसी के साथ एक अंडा भी जेब से निकलकर बाहर आकर गिरा।
तर्कप्रवीण श्रद्धाहीन विद्वानों की आज यही स्थिति है।
इस विराट् विश्व में जितनी भी आत्माएँ हैं चाहे विकसित हों चाहे अविकसित हों उन सबमें ज्ञान रहा हुआ है । ज्ञान आत्मा का निज गुण है। जो आत्मा हैं, वे ज्ञान हैं, और जो ज्ञान हैं वे आत्मा हैं। जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया।
- आचारांग, ५/५/१६६ पर जब तक श्रद्धा नहीं है, तब तक वह ज्ञान अज्ञान है । श्रद्धा ही अज्ञान को ज्ञान के रूप में परिवर्तित करती है। श्रद्धा वह वरदान है जिससे अज्ञान भी ज्ञान के रूप में बदल जाता है।
जैन मनीषियों ने इसीलिए पहले सम्यकदर्शन रखा है फिर सम्यक् ज्ञान । वैदिक ऋषियों ने रूपक की भाषा में यही कहा है
श्रद्धादेवी प्रथमजा ऋतस्य-ते. ब्रा. ३/१२/१३ ऋत्-सत्यस्वरूप ब्रह्म की पहली बेटी श्रद्धा है ।
श्रद्धा हृदय को कोमल बनाती है, मृदु बनाती है, और मृदु हृदय में ज्ञान, तप आदि का अंकुर पल्लवित-पुष्पित होकर कल्पवृक्ष का रूप धारण कर सकता है।
भगवान महावीर को कुछ लोग महान् प्रज्ञावादी बताते हैं । इसके समर्थन में भगवान के अनेक विशेषणों को भी उद्धृत किया जाता है ।
जैसे
से भूइपन्ने-वे महान् प्रज्ञावाले थे। आसुपन्ने- वे आशुप्रज्ञ थे।
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