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६२ | सद्धा परम दुल्लहा
'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' इस प्रकार के स्वराज्यप्रेरक मन्त्र के पीछे लोकमान्य तिलक का प्रबल संकल्पबल था । उनके इस संकल्पबल का प्रभाव महात्मा गाँधी आदि कई तत्कालीन राजनेताओं तथा विचारक लोगों पर पड़ा और भारतीय जनता भी उस कार्य में सहयोगी बनकर जुट पड़ी ।
प्रबल संकल्प सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं
प्रबल संकल्प एक प्रकार के प्रबल विचार या भाव हैं । ये उसी व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, इनकी लहरें बनकर समस्त ब्रह्माण्ड में या वायुमण्डल में फैल जाती हैं, और अपने सजातीय विचारों को एकत्र करती रहती हैं । ये संक्रामक होते हैं, जाने-अनजाने, व्यक्त या अव्यक्त रूप से ये सत्संकल्प भी उसी तरह व्यक्ति से समाज, राष्ट्र और विश्व तक फैल जाते हैं, जिस तरह रेडियो स्टेशन के ट्रान्समीटर से छोड़ी हुई ध्वनि तरंगें सर्वत्र फैल जाती हैं । जिस समाज या राष्ट्र में दृढ़ संकल्पवान् व्यक्ति होंगे, वह समाज और राष्ट्र भी शक्तिशाली, प्रभावशाली और दबंग होगा ।
शुभ संकल्प के आगे अशुभ संकल्प प्रभावहीन हो जाता है
निःसंदेह यह बात सत्य है कि जो संकल्प अशुभ होगा, दूसरों को मारने, लूटने, सताने या हैरान करने का अथवा हानि पहुँचाने का होगा, उसके साथ बहुत बड़े खतरे भी जुड़े हुए हैं । प्रायः ऐसे दुःसंकल्प वाले व्यक्ति का संकल्प प्रबल सत्संकल्प वाले पर बिलकुल प्रभाव नहीं डाल सकता, उलटे, वह लौटकर उसी पर हावी हो जाता है ।
भगवती सूत्र ( श० १५) में वर्णन है कि जब गोशालक ने तीव्र दुःसंकल्पपूर्वक भगवान् महावीर पर अपनी तेजोलेश्या छोड़ी तो वह भगवान् के चारों ओर चक्कर काटकर वापस गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई । उससे गोशालक के शरीर में तीव्र दाह (जलन) पैदा हो गया, जिसके फलस्वरूप सात दिनों में ही गोशालक को अपनी मिथ्या महत्वाकांक्षाओं के अरमानों को अपने ही समक्ष विफल होते देखकर समेटना पड़ा । अन्तिम समय में उसने अपने विचार बदले, सम्यग्दृष्टि प्राप्त हुई और वह इस लोक से विदा हो गया ।
इसलिए अध्यात्म विज्ञानवादी महामनीषियों एवं त्रिलोकहितैषी तीर्थंकरों का मन्तव्य है कि संकल्प होना चाहिये - धर्म, सत्य एवं परमार्थ के लिए, आत्मशक्तियों के विकास के लिए । जहाँ आर्तध्यान, रौद्रध्यानवश
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