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५४ | सद्धा परम दुल्लहा
विचारों के रहते कोई कार्यक्रम या योजना न बनाए। अपनी निर्णयशक्ति में वद्धि करे, कोई भी निश्चय करने में विलम्ब न करे। जिस कार्य में वह व्यक्ति सफल होना चाहता है, उस कार्य के प्रति अपनी रुचि, योग्यता और भावना को भली भाँति जान ले । अर्थात्-वह उस कार्य के लिए संकल्प ले, या अपना लक्ष्य निर्धारित करे। फिर उसी पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित कर ले। ऐसा करने से व्यक्ति को प्रारम्भिक कठिनाइयों या सामयिक असफलताओं का मुंह देखना नहीं पड़ेगा। कदाचित् विफलता होगी तो भी वह हताश नहीं होगा, बल्कि लगन और ईमानदारी के साथ लक्ष्य या संकल्प की दिशा में अग्रसर होगा, और अपने आत्मविश्वास को प्राणवान् बनाएगा। जिस अनुपात में आत्मविश्वास प्राणवान् बनेगा, उसी अनुपात में उसकी विपत्तियाँ और असफलताएं दूर होती जाएंगी। और आत्मविश्वास से पद-पद पर आशा, सुरक्षा, निर्माण, सुख-शान्ति, प्रगति, सफलता और अदृश्य सहायता अपने आप मिलती दिखाई देगी।
महात्मा गाँधी ने अहमदाबाद में 'कोचरब' में जब सर्वप्रथम आश्रम खोला तो उस समय दूधाभाई नामक एक हरिजन का परिवार वहाँ रहने के लिए आ गया । गाँधीजी का मतव्य था, मनुष्य मात्र एक है। उसमें कोई फर्क नहीं है । परन्तु जो व्यक्ति आश्रम को आर्थिक सहयोग दे रहे थे, वे गाँधीजी के समता के इस व्यवहार से अप्रसन्न हो गए, उन्होंने अर्थ-सहायता देने से अपना हाथ खींच लिया। परन्तु दृढ़ आत्मविश्वासी गाँधीजी अपने सिद्धान्त और तदनुकूल व्यवहार से एक इंच भी पीछे हटना नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने निर्णय कर लिया कि वे मानव-समता के सिद्धान्त एवं व्यवहार को नहीं छोड़ेंगे, भले ही कोई आर्थिक सहायता दे या न दे। इस आत्मविश्वास का फल यह हुआ कि दूसरे दिन प्रातःकाल ही कोई अजनबी व्यक्ति अपना परिचय न देकर गाँधीजी को चुपचाप आश्रम चलाने हेतु तेरह हजार रुपयों के नोट दे गया। आत्मविश्वास बढ़ाने के कुछ मन्त्र
अतः लक्ष्य निर्धारित करने या कार्य का मनोरथ करने के बाद बारबार दुविधा, पशोपेश या शंकाशीलता में नहीं पड़ें, न ही पलायन-मार्ग ढूँढें । अपनी क्रियाशक्ति पर विश्वास करके लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़िए । अबोध बालक की तरह दूसरों के मत, अभिप्राय या परामर्श की अपेक्षा न रखिए । भावावेश में आकर एक निर्धारित कार्य का परित्याग करके दूसरे
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