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४६ | सद्धा परम दुल्लहा प्रयोजन, पदार्थ, अभिधेय उद्देश्य आदि । ऐसी स्थिति में जितने भी अर्थ शब्द के पर्यावाची शब्द हैं, उनके प्रति श्रद्धा करने का प्रसंग आता, जो युक्ति और सिद्धान्त से विरुद्ध है। __अतः सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'अर्थ श्रद्धानं' से पूर्व 'तत्व' शब्द जोड़ा गया । तब उसका अर्थ हुआ-जो तत्वभूत पदार्थ हैं, उन्हीं पर श्रद्धा प्रतीति या निश्चय करना सम्यग्दर्शन है। तत्वार्थश्रद्धान का रहस्यार्थ
कतिपय आचार्यों ने तत्व शब्द का फलितार्थ दिया है-जिस पदार्थ, द्रव्य या भाव का कथन करना अभीष्ट है, उसका स्वभाव । स्वभाव से तात्पर्य है-उस पदार्थ की जातीयता, जो कि उस प्रकार के अनेक पदार्थों में अनुगत हो। उदाहरणार्थ-जीवतत्व कहने से संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें अनुगत उपयोगत्व या चैतन्य की समानता का बोध होता है। भले ही जीव अनंत हों, किंतु सभी जीवों का उक्त स्वभाव एक-सा है। इसी प्रकार अजीव तत्व कहने से जितने भी अजीव हैं, उन सब में अजीव स्वभाव का एक-सा बोध होता है। इसी प्रकार आस्रव, संवर निर्जरा, बंध और मोक्ष आदि तत्व भले ही एक-एक हों, किन्तु इन तत्वों के अन्तर्गत जितने भी अन्तरंगबहिरंग कारण हैं, उन सब में अनुगत उस-उस तत्व के स्वभाव का बोधहोगा। यही कारण है कि सम्यक्त्रद्धारूप सम्यग्दर्शन के लक्षण में तत्व मात्र पर श्रद्धान न कहकर तत्वार्थ-श्रद्धान कहा गया है । उसका रहस्यार्थ यह है कि इस लक्षण में जिन तत्वभूत जिनोक्त सात या नौ तत्वों का कथन किया गया है, उन शब्दों को या उनकी व्याख्याओं को जानना या उन पर श्रद्धा मात्र करना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु मूल वस्तु है-तत्वभूत पदार्थों के भावों या स्वभावों का ज्ञान और श्रद्धान करना । युक्ति और आगमोक्ति को स्वानुभूति के साथ मिलान करके उस-उस तत्व के स्वभाव का निश्चय करना-हृदयंगम करना तत्वार्थ-श्रद्धान है। तत्वार्थश्रद्धान का फलितार्थ लाटीसंहिता के अनुसार इस प्रकार हैं
“तत्वं जीवास्तिकायाद्यास्तत्-स्वरूपोऽर्थ संज्ञकः ।
श्रद्धानं... ... ... ... ॥1 प्रत्येक तत्वभूत पदार्थ का पृथक्-पृथक् धर्म-स्वभाव है। उसी धर्म
१ लाटीसंहिता सर्ग ३, श्लोक ८ ।
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