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१२२ | सद्धा परम दुल्लहा
करना । इसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टिप्राप्त व्यक्ति को तत्त्वज्ञान का अभ्यास करके हंस की तरह अतत्त्वभूत=असारभूत (एकान्तवाद या सद्धर्म के विपरीत) अर्थ का त्याग और सारभूत तत्वभूत अर्थ का विवेक करना चाहिए। जब हेय और उपादेय तत्वों, वस्तुओं या व्यक्तियों का यथार्थ ज्ञान (विवेक) नहीं होता, तब असली हीरे के बदले कांच के चमकते हुए टुकड़ों को पकड़ लेने की तरह व्यक्ति सत्य पथ पर न लगकर इधर-उधर के मिथ्या भ्रमजाल को सत्य समझ कर पकड़ लेता है।
अतः सम्यश्रद्धा की शुद्धि, वृद्धि अथवा पुष्टि के लिए श्रद्धा को चारों पहलुओं से जांचते-परखते रहना चाहिए।
(२) त्रिलिग--जो अपनी सम्यश्रद्धा (सम्यक्त्व) को शुद्ध रखता है, उसकी निम्नोक्त तीन चिन्हों (लिंगों) से पहचान हो जाती है-(१) परम आगम-शुश्र षा (श्रवणेच्छा) (२) धर्मसाधना के प्रति उत्कट अनुराग, एवं (३) जिनेश्वर देव एवं पंचाचारपालक गुरुदेव की वेयावृत्य करने का नियम।
इन तीन बातों से शुद्ध सम्यक्त्वी की पहचान भी होती है और वह सम्यकश्रद्धा की अभिवृद्धि एवं शुद्धि भी कर सकता है। आध्यात्मिक तथ्यों से परिपूर्ण, आत्मा के मोक्ष के लिए साधक-बाधक तत्वों के विवरण से से युक्त उत्कृष्ट आगमों के श्रवण करने की उत्कण्ठा शुद्ध सम्यक्त्वी की पहली निशानी है। श्रवण करने की उत्कण्ठा जब विस्तृत होती है, तब वह श्रवण तक ही सीमित नहीं रहती, किन्तु श्रवण से ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, अनास्रव, तप, व्यवदान, अक्रिया और अन्त में निर्वाण होता है। यानी श्रवण का फल परम्परा से मोक्ष है । वैसे भी सच्चा श्रोता श्रवण के पश्चात् मनन-चिन्तन, प्रश्न, तके-वितकें और तत्पश्चात् ग्रहण करके स्मृति में धारण करता है।
श्रवण के पश्चात् सम्यक्त्वी की द्वितीय पहचान है-~-धर्मसाधना में श्रद्धापूर्वक तीव्र अनुराग । अर्थात्-धर्मसाधना-धर्मक्रिया, जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमणादि या स्वाध्याय, सिद्धान्तज्ञान आदि में तथा अहिंसादि व्रत ग्रहण करने तथा उनका अप्रमत्त भाव से आचरण करने में
१ जे सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं ।" २ भगवती सूत्र-सवणे नाणे....."अकिरिया सिद्धि ।
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