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२ / सद्धा परम दुल्लहा लुभावने इन्द्रिय-विषयभोगों का प्रेयमार्ग परिणाम में दुःखकर है, जबकि परमार्थ और त्याग-तप-संयम का श्रेयमार्ग परिणाम में सुखकर है, फिर भी सामान्यतया वे इस गलती को बार-बार दुहराते रहते हैं, वे श्रेय का मार्ग छोड़कर प्रेय के मार्ग पर ही चल पड़ते हैं।
चित्तमुनि के जीव ने अपना कर्तव्य समझकर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त (सम्भूति के जीव) को प्रेयमार्ग की हानियाँ और श्रेयमार्ग के विविध दूरगामी लाभ बताकर समझाया था कि "प्रेयमार्ग तो इस जीव ने अनन्तअनन्त बार अपना लिया, उससे अनन्त बार विभिन्न योनियों और गतियों में जन्म-मरण किया, अब तो इस मनुष्य-जन्म को पाकर श्रेयमार्ग अपनाने का अवसर है। श्रेयमार्ग को अपना लो।" परन्तु भोगों में अत्यासक्त ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पर उनके इस उपदेश का उलटा असर हआ। वह चित्तमुनि के जीव से रमणीय भोगों के लुभावने प्रेयमार्ग पर चलने का अनुरोध करने लगा। उनके लिए महल, भोगों की विविध सामग्री-सुन्दर रमणियाँ, वस्त्राभूषण आदि चित्ताकर्षक प्रेयमार्ग के सभी साधन देने को तैयार हो गया। परन्तु भोगों से सर्वथा विरक्त, तप-संयम के आग्नेय पथ पर आनन्द मनाने वाले आत्मार्थी चित्तमुनि के लिए प्रेयमार्ग को अपनाना असम्भव था । अतः उन्होंने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से साफ-साफ कह दिया कि मैं इस संसारचक्र में नहीं फंस सकता। जिस प्रकार दलदल में फंसा हुआ मत्त हाथी जलाशय का तटस्थल देखते हुए भी वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ होता है, उसी प्रकार ब्रह्मदत्त भी भोगों के दुष्परिणाम जानता हुआ भी भोगों के दलदल में फँसा हुआ था, वह निकल नहीं पा रहा था। तब अन्त में चित्तमुनि ने उसे सुलभ मार्ग बताते हुए कहा-- ___जइतासि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाई कम्माई करेहि रायं ।
---हे राजन् ! यदि तुम भोगों का त्याग करने में असमर्थ हो तो कम से कम आर्यकर्म तो करो, जिससे कि यहाँ से आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में तो जा सको, कुगति के दुःखों से तो बच सको। परन्तु ब्रह्मदत्त ने मुनि की इतनी-सी बात भी नहीं मानी । आखिर मरकर ब्रह्म दत्त नरक का मेहमान बना।
इसके विपरीत चित्तमुनि ने कामभोगों से सर्वथा विरक्त, निष्काम
१. उत्तराध्ययन अ० १३ गा०३२
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