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सम्यक्त्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | ११७ (७) 'भगवती आराधना में निःशंकित आदि आठ गुणों से युक्त शुद्ध आत्मपरिणति को दर्शन-विशुद्धि बताया गया है ।
(८) 'रयणसार' में दर्शनविशुद्धि के लिए सात प्रकार के भय, सात प्रकार के कुव्यसन, तथा २५ प्रकार के (पूर्वोक्त) मिथ्यात्व से रहित होना, निःशंकितादि आठ अंगों से सम्पन्न होना, एवं संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर पंच परमेष्ठी के प्रति भक्ति होना आवश्यक बताया है।
(६) प्रवचन-सार की तात्पर्यवृति में दर्शन-विशुद्धि से युक्त पुरुष का लक्षण यों बताया गया है कि “निजशुद्ध-आत्मस्वरूप की रुचिरूप निश्चय-सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थश्रद्धानरूपदर्शन) के तीन मूढताओं आदि २५ मलों (दोषों) से रहित पुरुष ही शुद्ध सम्यग्दर्शन से युक्त है।"
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के कुछ तथ्य अंकित किये गये हैं, जिन पर चिन्तन-मनन करना आवश्यक है ।
सम्यक्श्रद्धा की विशुद्धि में सहायक वैसे देखा जाये तो सम्बक्य द्वा को विशुद्धि सम्यग्दृष्टि के अपने हाथ में है। वह सावधानी और अप्रमत्तता रखेगा, तभी सम्यग्दर्शन शुद्ध रह सकता है। किन्तु सभी व्यक्ति इतनी उच्च भूमिका के नहीं होते, उन्हें सम्यकश्रद्धा की विशुद्धि के लिए किसी न किसी सहायक आलम्बन की आवश्यकता होती है। व्यवहार-सम्यग्दर्शन को विशुद्धि के लिए 'चतुर्विशति-स्तव' का आलम्बन महत्वपूर्ण निमित्त माना गया है। भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि चतुर्विशति स्तव से जीव को क्या लाभ होता है ? तो उन्होंने फरमाया
"चउव्वीसत्थएण सण-विसोहि जणयइ ।" चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति (स्तव) से जीव दर्शन-विशुद्धि प्राप्त करता है।
१ भ० आराधना १६७ । २ रयणसार गाथा ५। ३ प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति ८२/१०४/१८ । ४ उत्तराध्ययन अ० २६ सूत्र ६ ।
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