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सम्यक् श्रद्धा की दूसरी पाँख : देव गुरु-धर्म-श्रद्धान | ७७
शुद्ध धर्म ही श्रद्धय एवं आराध्य होता है । जिसके अन्तर् में ऐसी धर्मं श्रद्धा आ जाती है, वह दुख और विपत्ति के समय घबराता नहीं, शान्ति और समता रखता है । भगवान् महावीर ने धर्मश्रद्धा से लाभ के विषय में कहा कि धर्म श्रद्धा से जीव को सातावेदनीय कर्मोदय से प्राप्त होने वाले सांसारिक सुखसाता से विरक्ति हो जाती है। 1
अर्थात् - अपने सुख को गोण करके दूसरों को सुख पहुँचाना. या विघ्न बाधा न डालना उसका स्वभाव बन जाता है । दूसरों को कष्ट से बचाने के लिए अपने प्राप्त सुखों का त्याग कर देता है । सच्चा धर्मश्रद्धालु धर्म से धन, पुत्र, प्रसिद्धि, इह-पारलौकिक सुख की वांछा या फलाकांक्षा नहीं करता । वह परिवार, समाज एवं राष्ट्र आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में भय, प्रलोभन, सुख-सुविधा, धन-वैभव, विषय-सुखों एवं रागादि से हटकर एक मात्र अपने स्वभाव में स्थित होकर अहिंसा, सत्यादि धर्म का पालन करता है ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६ तीसरा बोल
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