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११२ | सद्धा परम दुल्लहा
सुद्ध सम्मत्त वि अज्जेदि तित्थयरणाम ।
जादो दु सेणिगो आगमेसि अरुहो अविरदो।। अर्थात- शंका-कांक्षा आदि या चल-पल-अगाढ़ आदि दोषों से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन होने पर अविरत (व्रत-प्रत्याख्यान आदि से रहित) होने पर भी सम्राट् श्रेणिक भविष्य में तीर्थंकर नाम (अर्हत्पद) को प्राप्त करेगा।
दर्शन-विशुद्धि को इतना महत्व इसलिए दिया गया है कि दर्शन विशुद्ध हए बिना न तो ज्ञान विशुद्ध होता है, न ही चारित्र और न तप। विशुद्ध सम्यग्दर्शन के बिना जो भो अहिंसा आदि का आचरण किया जायेगा, अथवा जो भी त्याग, व्रत, प्रत्याख्यान आदि किया जायेगा, उसके पीछे आवेश, कामना, वासना, अहंकार आदि प्रविष्ट हो जाने से ये सकामनिर्जरा के कारण नहीं होंगे, अर्थात् संसार (कर्म) क्षय के कारण नहीं होंगे। जिसका दर्शन (श्रद्धान) शुद्ध होता है, वही आत्मा निजस्वरूप का निश्चय करके काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकारों से दूर रहकर अपने ज्ञान, तप, चारित्र आदि का शुद्ध रूप में पालन कर पाता है और कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 'मोक्षपाहुड' में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए बताया गया है
दसणसुद्धो सुद्धो, दसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं। ___दसण-विहीण- पुगिसो न लहइ तं इच्छ्यिं लाहं ।।
जो आत्मा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि से शुद्ध है, वही (आत्मा) वास्तव में शुद्ध है । अर्थात्-उसी आत्मा का ज्ञान, चारित्र, त्याग, तप आदि शुद्ध है। दर्शनशुद्ध आत्मा ही निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है। शूद्ध दर्शन (श्रद्धा) से रहित पुरुष अभीष्ट (मोक्ष) लाभ को प्राप्त नहीं कर पाता।
वस्तुतः जो व्यक्ति विशुद्ध श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) सम्पन्न होता है, वह अपने जीवन में किसी भी प्रकार की शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि नहीं आने देता, न ही अपनी रत्नत्रय साधना के साथ फलाकांक्षा, चंचलता, मलिनता, शिथिलता, निदान आदि दोषों को आने देता है । वह जिनोक्त तत्वों अथवा श्रद्धेय त्रिपुटी (देव-गुरु-धर्म) के प्रति श्रद्धा-प्रतीति से जरा भी विचलित नहीं होता। आवश्यकनियुक्ति में व्यवहार दृष्टि से शुद्ध सम्यग्दर्शन का स्वरूप और माहात्म्य बताते हुए कहा है
१ भगवती आराधना गा० ७४० । २ मोक्षपाहुड गा. ३६
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