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६६ | सद्धा परम दुल्लहा है, अथवा श्रद्धा का प्रदर्शन है, हार्दिक सम्यकश्रद्धा नहीं । जो व्यक्ति विवेक दृष्टि से बुद्धि की तुला पर श्रद्धय त्रिपुटी को तौले बिना ही उनका मिथ्या आलोचक बन जाता है, या पूर्वाग्रहवश उनके विरुद्ध गलत धारणा बनाकर उनके विषय में सोचता-समझता है, वह भी इनके प्रति हृदय में सम्यश्रद्धा का दीपक नहीं संजो सकता। उसकी इस भयंकर गलती का नतीजा स्वयं को ही उठाना पड़ता है । उसके हृदय में सम्यकश्रद्धा-दीप बुझ जायेगा, उसका हृदय-कपाट श्रद्धय के प्रति बंद हो जायेगा, और सम्यकश्रद्धा का बीज उसके हृदय में अंकुरित नहीं हो पायेगा । समपित हृदय की श्रद्धा ही समर्पणकर्ता के चित्त को विश्राम देती है । श्रद्धय तत्वों के प्रति ऐसी सम्यक् श्रद्धा जिसे उपलब्ध होती है, उसके जीवन में सुख, शान्ति, मानसिक और भावनात्मक शक्ति, तथा आध्यात्मिक रोग प्रतीकारक शक्ति आ जाती है । ऐसी श्रद्धा ही व्यक्ति के महान् बनने और मुक्ति पथ की ओर तीव्र गति से बढ़ने की सम्भावना के द्वार खोल देती है। खण्डित श्रद्धा से लाभ नहीं
यह भी निश्चित है कि जो व्यक्ति नाना देवों या अनेक कोटि के देवों के प्रति, अनेक प्रकार के तथाकथित गुरुओं के प्रति तथा अनेक धर्म-पन्थों या सम्प्रदायों के प्रति श्रद्धा रखता है, उसकी श्रद्धा खण्डित श्रद्धा है, अखण्डित या अनन्य श्रद्धा नहीं कही जा सकती। ऐसा विभक्त श्रद्धा वाला व्यक्ति किसी भी श्रद्धय तत्व का भक्त नहीं बन पाता और न ही वह इन जिनोक्त श्रद्धय तत्वों के प्रति खण्डित श्रद्धा से यथेष्ट लाभ उठा सकता है। सम्यक्श्रद्धा-विषयक भ्रान्तियाँ
___कई लोग यह सोचते हैं कि वीतराग सर्वज्ञ देवों, मार्गदर्शक गुरुदेवों एवं धर्मतत्व की बाह्य भक्ति, भजन-कीर्तन, स्तुति और स्तोत्र, गुणोकीर्तन तथा नाम-स्मरण आदि के द्वारा अथवा इनकी मूर्ति के आगे नैवेद्य-चढावा आदि चढ़ाकर या महान् समारोहों द्वारा उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करके हम उन्हें प्रसन्न कर देंगे, इससे हमारे पापों या दुश्चरित्रों, दुष्कर्मों या अधर्माचरणों पर पर्दा पड़ जाएगा, ये श्रद्ध य तत्व खुश होकर हमें हमारे पूर्वकृत पापकर्मों, दुष्कृत्यों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखों, कष्टों और विपत्तियों से छुटकारा दिला देंगे, हमें दुःखों से मुक्त कर देंगे। परन्तु यह भ्रान्ति है । भला, वीतराग देव, वीतरागता
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