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राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा
(7) फागु काव्य :
ऋत-वर्णन में फाग-काव्य जैन साहित्य की विशिष्ट साहित्यिक विधा है। फाल्गुन-चैत्र (वसन्त ऋतु) मास में इस काव्य को गाने का प्रचलन है । इसलिए इन्हें फागु या फागु-काव्य भी कहा जाता है। गरबा भी ऐसे उत्सवों पर गाये जाने वाले नृत्यगीत हैं। फागु और गरबा रास काव्य के ही प्रभेद हैं । इन काव्यों में शृंगार-रस के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का चित्रण किया जाता है। प्रवृत्तियों एवं काव्य शैली के आधार पर विद्वानों ने फाग की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मानी है। डा.बी.जे.साण्डेसरा फाग को संस्कृत के फला शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं-फला-फगु-फागु ।' 'डिंगल कोश' में फाल्गुन के पर्यायवाची फालगुण और फागण बताये हैं। इन व्युत्पत्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि फागु का उद्भव गेय-रूपकों, काव्यों में बसन्तोत्सव मनाने से हुआ है।
इनमें मुख्य रूप से संयमश्री के साथ जैन मुनियों के विवाह, शंगार, विरह और मिलन वर्णित होते हैं। जैन मुनि चूंकि सांसारिक बन्धन तोड़ चुके हैं, अतः उनके लौकिक विवाह का वर्णन इनमें नहीं मिलता। इन्हीं विषयों को लेकर जैन मुनियों ने 14 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक अनेक ऋषियों से सम्बन्धित फागु काव्यों का निर्माण किया। इस श्रृंखला की प्राचीनतम रचना जिनचन्द सूरि फागु (वि.सं.1349-1373) कही गयी है। अन्य महत्वपूर्ण रचनाएं इस प्रकार है-स्थूलभद्र फाग (देपाल)', नेमिफाग (कनकसोम), नेमिनाथ फागः, जम्बूस्वामी फाग' आदि। (8) धमाल :
___फागु-काव्यों के पश्चात् धमाल-काव्य-रूप का विकास हुआ। यों फागु और धमाल की विषय-वस्तु समान ही है । होली के अवसर पर आज भी ब्रज और राजस्थान
प्राचीन फागु-संग्रह, पृ.53 2. परम्परा 3. सम्मेलन पत्रिका (नाहटाजी का निबंध ‘राजस्थानी फागु काव्य की परम्परा और विशिष्टता) 4. जैन गुर्जर कविओ, भाग 1, पृ. 37, पृ.446, 496 5. जैन साहित्य, नो संक्षिप्त इतिहास, पृ.896 . 6. सम्मेलन पत्रिका 7. सी.डी. दलाल-प्राचीन गुर्जर कवि-संग्रह, पृ. 41, पद 27