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मध्यकालीन राजस्थानी जैन रचनाओं में......संदर्भ (वि.सं. 1600 - वि.सं. 1900)
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स्वतंत्र थी । पुण्यसार चौपाई वि.सं. 1673 (समयसुन्दर) में उल्लेख है कि जब रत्नावती के पिता बिना उसकी इच्छा जाने पुण्यसार से उसकी सगाई तय कर देते हैं तो वह अग्नि में जलने को तत्पर हो जाती है । वह तुरन्त अपने पिता को बुलाकर अपने इच्छित वर गुणसुंदर के साथ विवाह करवाने का निवेदन अपने पिता को करती हैं
"सुणज्ये तात समाज, बोलइ रतनवती वचन । पावक पडू ससि प्राण, पुण्यसार परणण वात ॥
तेड़ी तात नइ तुरत कहइ इते, मन मान्यो मुझ खंताजी परणावउ गुणसुंदर परमइ, खरी अछइ भाणखंत
सेठइ जाण्यो भाव सुता को तुरत गयो तस पास जी। शास्त्रों में वर्णित विवाह के आठों प्रकार में से इस काल की जैन रचनाओं में मुख्य रूप से प्राजापत्य, गांधर्व और राक्षस विवाहों के संदर्भ अधिक वर्णित हुए हैं। विवाह की स्वयंवर---पद्धति में मुख्य रूप से नायक द्वारा शर्त की पूर्ति पद्धति ही इस युग में प्रचलित कही जा सकती है । हेमरत्न कृत पद्मनी चरित्र चौपई में पद्मिनी के भाई के साथ शतरंज की बाजी जीत जाने की शर्त को पूरा करने पर ही रतनसिंह का विवाह पद्मिनी के साथ होता है
“ रतनसेन सतरंजड रमइ, तिम तिम नारि तमई मनि गमई । जु किम ई ए जीपइ दाण, तु मुझ वखत सही सुप्रमाण ।।
कंठ ठवी को मला वरमाल, जय जय शब्द जगावई बाल ।
शंघलदीप तणु हिव घणी, भगति करइ ते भूपति तणि ।। परम्परित विवाहों में बारात का बड़ा महत्व है। यह सामाजिक संदर्भ मध्यकाल में काफी ऊभर कर आया है । कुशललाभ कृत भीमसेन हंसराज चौपाई में हंसराज की बारात से यह स्पष्ट होता हैं कि इस युग के समाज में बारात को अनेक साधनों से सजाया जाता था। चतुरंगिणी सेना, चारण, भाटों, याचकों और सम्बन्धित बड़े-बड़े राजाओं का लवाजमा बारात की शोभा माने जाते थे।
सुहागरात, लग्न, पाणिग्रहण, दहेज, मुंह-दिखाई, सीख (शिक्षा) देना आदि विवाह से सम्बन्धित प्रथाओं का भी चित्रण इस युग में रचित जैन-कृतियों में उपलब्ध होता है। लब्धोदय रचित पद्मिनी चरित्र चौपई वि.सं. 1680 में दहेज का