Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 111
________________ 100 राजस्थानी जैन साहित्य पिंगल शिरोमणि (वि.सं. 1635), स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तनव(वि.सं. 1638), श्रीपूज्यवाहण गीत (लिपिकाल वि.सं. 1647), गौड़ी पार्श्वनाथ छन्द, नवकार छंद, महामाई दुर्गा सातसी, जगदम्बा छन्द अथवा भवानी छंद (लिपिकाल वि.सं. 1734), स्थूलिभद्र, छत्तीसी, स्फुट कवित्त, भीमसेन हंसराज चौपई (वि.सं. 1643), शत्रुजय यात्रा स्तवन (वि.सं. 1644), गुणसुन्दरी चौपई (?) आदि छोटी-बड़ी अट्ठारह रचनाओं का निर्माण किया । इनके अतिरिक्त हंसदूत एवं ज्ञानदीप नामक दो रचनाओं की अपने अध्ययन के लिये प्रतिलिपियां की। इन सभी रचनाओं के आधार पर कुशललाभ का जन्म खरतरगच्छ वंश में विक्रम संवत् 1590-95 के लगभग तथा मृत्यु वि.सं. 1655 के आसपास कुंती जा सकती है। आपके गुरु का नाम उपाध्याय अभयधर्म था । जैसलमेर (राजस्थान) के भाटी वंशीय रावल हरराज आपके आश्रयदाता एवं शिष्य थे । कवि ने अपने व्यापक ज्ञान द्वारा अपने साहित्य को रोचकता और विविधता से संवारा है। कुशललाभ से पूर्व के प्रायः सभी जैन कवि परिव्राजक एवं भक्त हैं, पर आलोच्य कवि इन दोनों ही प्रवृत्तियों का अनुभवी है । माधवानल कामकंदला चौपई, ढोला-गारवणी चौपई और पिंगलशिरोमणि ग्रंथों की रचना उसने मात्र अपने आश्रयदाता के कुतूहलार्थ ही लिखी, जबकि अन्य प्रेमाख्यानों एवं स्तोत्रों की रचना उसने स्वतंत्र रूप से की । कवि के इन दोनों अनुभवों से उसमें साहित्यिक ईमानदारी का प्रादुर्भाव हुआ है। उसमें क्लिष्टता की अपेक्षा सहजता और सरलतता का अनुभव किया जा सकता है। जैन कवियों ने विविध विषयों पर लिखा । व्याकरण, छन्द विवेचन एवं चरित काव्य इनमें प्रमुख हैं। कुशललाभ ने “पिंगलशिरोमणि" में सर्वप्रथम एक साथ कोष एवं काव्यशास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया। “पिंगलशिरोमणि में विवेचित प्रस्तार विधि वर्णन, गीत-प्रकरण तथा अलंकार विवेचन कुशललाभ की महती उपलब्धि है । सम्पूर्ण ग्रंथ में कवि ने 104 छन्दों, जिनमें 23 प्रकार के दूहों, 26 प्रकार की गाथाओं, 72 प्रकार के छप्पयों, 75 अलंकारों तथा 40 प्रकार के गीतों (डिंगल-राजस्थानी का छंद विशेष) का विशद विवेचन किया है। “उडिंगल-नाममाला” प्रकरण में कवि ने चालीस शब्दों के तीन सौ चालीस पर्याय दिये हैं। इस प्रकार कुशललाभ कृत पिंगल शिरोमणि का न केवल जैन साहित्य में ही अपित् हिन्दी-रीति-परम्परा एवं अनेकार्थ कोश परम्परा में भी महत्वपूर्ण योगदान है। राजस्थानी साहित्य में तो यह 1. कामा (भरतपुर) के महाराज के निजी संग्रहालय में यह प्रति उपलब्ध है तथा अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में इसकी प्रतिलिपि सुरक्षित है।

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