Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 113
________________ 102 राजस्थानी जैन साहित्य किया। उस युग के समाज में प्रचलित अलौकिक शक्तियों के प्रति आस्था, ज्योतिषियों की भविष्य-वाणियों में जनता की श्रद्धा, स्वप्नफल और 'शकुन' के प्रति आस्थाओं को कवि ने अत्यन्त सरस और काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। तत्कालीन जन-समाज में प्रचलित पूर्व कर्म के प्रति श्रद्धा का एक उदाहरण प्रस्तुत है— पैले भव पाप में किया, तो तुझ बिण इतरा दिन गया । बात करे, बाषाण, जीवन जन्म आज सुप्रमाण || - ढोला मारवणी चौपई, चौ. 557 जैन कवियो का मूल लक्ष्य शम की प्राप्ति करना है । कारण, ये कवि पहले श्रावक और धर्मप्रचारक हैं, तदुपरान्त साहित्यकार । धार्मिक उपदेशों के साथ साहित्यिकता का आगम तो जैन साहित्य की एक सहज घटना है। फिर भी जैन साहित्य को आद्यन्त शान्त रस प्रधान नहीं माना जा सकता । प्रत्येक रचना का आरंभ शृंगार की सूक्ष्म प्रवृत्तियों से हुआ है । शृंगार के माध्यम से वैराग्य का उपदेश ही इन रचनाओं में दिया गया है । कुशललाभ की स्थूलिभद्र छत्तीसी, जिनपालित जिनरक्षित संधिगाथा, अगड़दत्त रास, भीमसेन हंसराज चौपई आदि रचनाओ में वर्णित शृंगार जैन साहित्य में शृंगार रस चित्रण का एक नया आयाम है रंभ गाभ जिसी जुग जंघ, उदित बिल्व सम उरज उत्तंग | अधर पक्व बिंबा अणुहारि, किर पूतली चित्र आकार । - भीमसेन हंसराज चौपई, चौ. 134 कुशललाभ 'जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी अपने साहित्य में भयानक, वीर, रौद्र, वीभत्स रसों को भी यथा- प्रसंग स्थान दिया है। जिनपालित जिनरक्षित संधि गाथा से भयानक रस सम्बन्धी निम्नलिखित पंक्तियां द्रष्टव्य हैं— सीहणि नीयरि ऊससह जी, करि जब कइ करवाल । आवी पुरुषां ऊसरइ जी, रुप कीयउ विकराल || X X X वे बोलइ बीहता जी, सामिणी अम्ह साधारि । कह्यउ तुम्हारउ कीजसी जी, अम्ह जीवतां उगारि ॥ जैन साहित्य की भाषा प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी अथवा जूनी गुजराती रही है । इन्हीं भाषाओं में उन्होंने विभिन्न विषयों पर साहित्य लिखा । कुशललाभ पश्चिमी राजस्थान के प्रमुख जैन एवं सामन्तीय संस्कृति वाले नगर

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