Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 121
________________ 110 राजस्थानी जैन साहित्य रो पंचढालियो, शिवजी रो चौढालियो, कर्मचंद गीतिका, शान्तिविलास, उदयचंदजी रो चौढालियो, हरख चौढालियो, हस्तूजी-कस्तूजी रो पंचढालियो, सरदारसुजश। इन 14 रचनाओं के अतिरिक्त इस संकलन में परिशिष्ट रूप में सतजुगी रो पंचढालियो और तेजीराम जी रो चौढालियो नामक दो अन्य रचनाएं भी संकलित हैं। इन कृतियों के माध्यम से कवि ने अपने समय के मूर्धन्य मनियों, आचार्यों, साधु-साध्वियों के तेरापंथ से संबंधित दर्शन को स्पष्ट किया गया है। परिशिष्ट की रचनाओं के लेखक मनि हेमराज हैं जो आचार्य भिक्षु के शासनकाल में वर्तमान थे। इस प्रकार ये रचनाएं भी जैन आध्यात्मिक दृष्टि को प्रस्तुत करने वाली है। 5. कालूयशोविलास तेरापंथ के नौवें और वर्तमान गणाधिपति आचार्य तुलसी की यह एक महत्वपूर्ण रचना है । कालू गणी की आचार्य तुलसी पर अतीव अनुकंपा थी। उनके साथ रहकर उन्हें “तेरापंथ” को समझने का एक लम्बा समय मिला । उनका अभाव आचार्य तुलसी के लिये असहाय था। ऐसे महान् आचार्य गुरु के जीवन की सहज श्रेष्ठता को लिपिबद्ध करना ही इस कृति का प्रमुख लक्ष्य है। काव्य रूप की दृष्टि से इसे महाकाव्य कहा जाना चाहिये। संपूर्ण रचना में कालू गणी के जीवन की आरंभ से अन्त तक की विविध घटनाओं का ब्यौरेवार वर्णन हुआ है । यह विवरण छह उल्लासों और पांच शिखाओं में समाहित है । प्रथम उल्लास में मंगलाचरण आदि के साथ कालू गणी के जन्मादि, दीक्षा, मधवा गणी के साथ घनिष्ठ संबंध आदि का परिचय दिया गया है। द्वितीय उल्लास में कालू गणी की सन्निधि में जर्मन विद्वान् हर्मन याकोबी का आगमन, नाबालिग दीक्षा का प्रतिरोध, चातुर्मास में दीक्षा का विरोध एवं शमन का ब्यौरा है। तृतीय उल्लास में कालू गणी की उत्कृष्ट सहिष्णुता, लाडनूं में आचार्य तुलसी की दीक्षा सरदारशहर चातुर्मास और दीक्षा प्रसंग को दर्शाया गया है। चौथे उल्लास में आचार्य तुलसी की पोषाल, कालू गणी-आचार्य तुलसी का मधुर संवाद, जंगल वर्णन, कालू गणी के अन्तिम वर्षों में सम्पन्न दीक्षाओं का वर्णन अंकित हैं। पंचम उल्लास में दीक्षा महोत्सव के प्रसंग में भ्रान्त धारणाएं और उनका निराकरण, मालवा में विरोधी वातावरण का निर्माण, कालू गणी की उंगली में प्राणहारी वेदना और उसकी सहनशीलता तथा छठे उल्लास में चातुर्मास हेतु गंगापुर पदार्पण, व्रणवेदना का विस्तार, लच्छीराम जी वैद्य के साथ

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