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राजस्थानी जैन साहित्य
है। इन काव्याभिव्यक्तियों में कवि की दृष्टि जगत् में व्याप्त द्वन्द्व और द्वैत पर अधिक केन्द्रित रही है । “उनकी काव्य-सर्जना के मूल में वह अद्वैतमूलक दृष्टि है, जो सारे दृश्यमान भेदों को भेदकर अभेद का दर्शन कराना चाहती है। वे समकालीन घटनाओं का वर्णन अंधकार और प्रकाश के प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
अंधेरो पीर दिवलो करयो
आंगणै नै सेंचनण पण स्वारथी मिनख जोत ने नुतों दियौ क्यूंक परकास'र पाप में
अणबण है । (पृ.24) तेरापंथ से सम्बन्धित आचार्यों, मनियों, साधु-साध्वियों द्वारा रचित उल्लेखनीय साहित्य है। यह गद्य और पद्य दोनों ही रूपों में है। दृष्टान्त रूप में इन्होंने जहां राजस्थानी गद्य को संस्मरणात्मक साहित्य की परम्परा प्रदान की वही जयाचार्य ने "उपदेशरत्न कथाकोश" के माध्यम से प्राकृत और अपभ्रंश की जैन कथाकोश परम्परा को जीवित रखा।
तेरापंथ मूलतः श्वेताम्बर जैन धर्म का अंग है, अतः सम्बन्धित सभी रचनाओं के विषय तत्सम्बन्धी दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले हैं। इन विषयों की अभिव्यक्ति इन कवियों ने मुक्तक और प्रबन्ध शैली में की है। अपने चरित्र की प्रस्तुति वर्णनात्मक शैली में अधिक की है।
वैसे तो इन रचनाओं का प्रमुख रस शान्त है किन्तु कथा विस्तार एवं लक्ष्य प्राप्ति के लिये शृंगार, करुण एवं वीर रस का बहुलता के साथ प्रयोग हुआ है। यथाप्रसंग अनुकूल वीभत्स, भयानक, रौद्र दृश्यों के भी स्तुत्य वर्णन देखने को मिलते हैं।
जैसा कि कहा जा चुका हैं कि तेरापंथ 233 वर्ष पुराना है तथा उसका उद्गम प्रतिक्रिया का परिणाम है । अतः अपने सिद्धान्त और मान्यताओं के अनुकूल ही इस
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जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं - तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान, पृ.90