Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 124
________________ तेरापंथ : रचनाकार और रचनाएं साहित्य में नवीन परिवेश का भी उल्लेख हुआ है। संसार की प्रत्येक वस्तु को जानना जीवन का लक्ष्य होना चाहिये सुख-दुखी भण्या- अणभण्या जड़-चेत तर गत री परतीत बागां पड़ी धूळ मंजळ री बभूत हैं T 113 इन रचनाकारों के प्रिय छंद, ढाल, दूहा, सोरठा, आर्या, लावणी, कलश, यतनी, गीतक, भुजंगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, मोतीदाम, आदि तथा प्रिय अलंकार अनुप्रास, वयणसगाई, सादृश्यमूलक अलंकारों के साथ यमक, लोकोक्ति, अनन्वय, उदाहरण, संदेह आदि अलंकारों का सुष्ठु प्रयोग हुआ है । 1 भाषा की भावानुकूलता इन रचनाओं और रचनाकारों की सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती हैं। नादसौंदर्य, ध्वन्यात्मकता ने हर समय भाषा का साथ निभाया है । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि तेरापंथ की राजस्थानी रचनाओं का काव्य-सौष्ठव सम्पन्न है । जनरुचि के अनुकूल भाषा, शब्दावली, छन्द और अलंकारों ने इन दार्शनिक धार्मिक रचनाओं में साहित्यिकता का संचार किया है। ये रचनाएं न केवल तेरापंथ अपितु राजस्थानी साहित्य की अमूल्य थाती है ।

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