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तेरापंथ : रचनाकार और रचनाएं
भारत सदैव से ही एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है। यहां जब-तब विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों का अस्तित्व रहा और उनसे सम्बन्धित साहित्य का विपुल मात्रा में सृजन हुआ। सूफी-सम्प्रदाय इसी परम्परा का एक गैर भारतीय सम्प्रदाय है, जिसने हिन्दी साहित्य के निर्माण में अपूर्व योगदान दिया। हिन्दी साहित्य को पल्लवित करने वाली एक महत्वपूर्ण भारतीय धार्मिक विचारधारा जैनियों की रही है। जैनियों ने प्राकृत-अपभ्रंश और राजस्थानी में अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं लिखकर साहित्य की स्रोतस्विनी को सदैव प्रवाहित रखा है। अपने विशिष्ट साहित्य-बंधों के कारण बौद्धों की चर्या-पद शैली, नाथों-सिद्धों की वाणी-शैली, सूफियों की मसनवियों की भांति ही जैन चरित-काव्य शैली का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
जैन धर्म में प्रमुखतः दो सम्प्रदाय हैं— श्वेताम्बर और दिगम्बर । दिगम्बर सम्प्रदाय की तुलना में श्वेताम्बरियों की शाखा-प्रशाखाएं अधिक हैं। इनका मूल आधार उनकी साधना (उपासना) पद्धति है। जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से ही पृथक् हुआ एक उल्लेखनीय सम्प्रदाय है-“तेरापंथ” । इस पंथ का इतिहास अधिक प्राना नहीं है। श्वेताम्बरी जैनियों के स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथजी के शिष्य कंठालिया ग्रामवासी भीखणजी (आचार्य भिक्ष) तेरापंथ के प्रवर्तक कहे जाते हैं । अपने गुरु रघुनाथ जी के साथ कुछ मतभेद हो जाने से उन्होंने इस पंथ की स्थापना वि.सं. 1817 में की। इस प्रकार “तेरापंथ” का इतिहास कुल 233 वर्षों का है। दो शताब्दियों में इस पंथ में कुल नौ आचार्य हुए। इस पंथ के वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ
1. “परम्परा” - राजस्थान साहित्य का मध्यकाल विशेषांक - श्री अगरचंद नाहटा का लेख -
"मध्यकालीन राजस्थानी जैन साहित्य”, पृ. 125