Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 117
________________ 106 राजस्थानी जैन साहित्य युवचार्य हैं । आचार्य तुलसी ने स्वतः यह पद उन्हें प्रदत्त किया तथा तेरापंथ समाज ने उन्हें “गणाधिपति” पद से विभूषित किया। तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु की यह दृढ़ मान्यता थी कि बिना अनुशीलन के सामूहिक व्यवस्था ठीक नहीं बैठ सकती और अव्यवस्था में कभी सम्यक् साधना सध नहीं सकती । इसीलिये तेरापंथ मर्यादाओं का पालन न करने वाले साधु-साध्वियों पर समुचित कार्यवाही को भी अनुमति देता है। आचार्य भिक्षु द्वारा तेरापंथ की कतिपय दार्शनिक मान्यताएं इस प्रकार हैं1. साध्य और साधन दोनों शुद्ध होने चाहिये। 2. जो कार्य करना साध्य के अनुकूल नहीं है, उसे करवाना, करने वाले का अनुमोदन करना भी साध्य के अनुकूल नहीं हो सकता। 3. भगवान की आज्ञा किस कार्य में है, मात्र उसी कार्य में धर्म है । धर्म हृदय-परिवर्तन में है, दबाव में नहीं, प्रलोभन में नहीं। 4. अयोग्य शिष्य न बनाये जाये। वर्तमान आचार्य अपने गुरुभाई अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें और सभी एक ही आचार्य की मर्यादा में रहें। इस प्रकार वैचारिक दृष्टि से तेरापंथ एक आचार, एक विचार, और एक आचार्य की विचारधारा का पोषक है । इसी मर्यादा में वह एक प्राणवान संघ है । इसका दर्शन तर्क-विज्ञान पर आधारित है। अतः यह युगानुरूप एवं परिस्थितिनुकूल परिवर्तन का भी समर्थक है। आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिपादित अणुव्रत दर्शन इसी दिशा में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जैन धर्म से सम्बन्धित यह पंथ शुद्ध रूप से राजस्थानी है। इसका जन्म राजस्थान में हुआ। पोषण भी राजस्थान में ही हुआ। अतः इस संघ में प्रव्रजित साधु-साध्वी और अनुयायी भी प्रायः राजस्थान के ही रहे । अतः इस संघ का प्रवचन, श्रावकाचार आदि में यहीं की भाषा राजस्थानी का प्रयोग हुआ। अपने संघ की धार्मिक मान्यताओं और भक्ति-सम्बन्धी साहित्य का प्रवचन इस पंथ के प्रायः सभी आचार्यों, मुनियों, साधु-साध्वियों ने किया। यह साहित्य गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में रचित है। इनमें सर्वाधिक रचनाएं आचार्य भिक्षु, जयाचार्य, आचार्य तुलसी, आचार्य

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