Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 89
________________ 78 राजस्थानी जैन साहित्य शासनकाल तक नागौर जनपद की सीमा नागौर, जायल, लाडनूं, डीडवाना, मेड़ता, डेगाना, पर्वतसर, नावां, मकराना, कुचामन से सम्बद्ध थी। नागौर के सम्पूर्ण इतिहास के परिप्रेक्ष्य से स्पष्ट होता है कि नागौर एक सांस्कृतिक जनपद था। यहां साहित्य की एक उज्ज्वल परम्परा विकसित थी। जैन धर्म की भट्टारक परम्परा का यहां पूर्ण विकास हुआ।' भट्टारक धर्मकीर्ति (वि.सं.1590), भट्टारक यशकीर्ति (वि.सं.1672), भट्टारक भानुकीर्ति (वि.सं.1690), भट्टारक श्रीभूषण (वि.सं.1705), भट्टारक धर्मचन्द (वि.सं.1712) आदि नागौर की भट्टारक परम्परा के आलोक स्तंभ हैं । भट्टारक और चेत्यालय परम्परा के अंतर्गत ही यहां अनेक मंदिरों, उपासरों, का निर्माण करवाया गया।2 युगप्रधान जिनचन्द्र लाहौर जाते हुए नागौर में रुके ।3 यहां जैन धर्म का इतना अधिक प्रचार-प्रसार रहा कि जैन संप्रदाय के 84 गच्छों में से तपागच्छ की नागौरीय तपागच्छीय शाखा ने वि.सं. 1174 से अपनी पहचान बना ली। 15 वीं शताब्दी में “लोरिकागच्छ” ने भी अपना विकास यहीं किया । वर्तमान में लाडनूं में स्थापित जैन विद्या अध्ययन संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी) भी इसी विकास यात्रा का उत्कर्ष है । इस पृष्ठभूमि से स्वतः सिद्ध होता है कि नागौर जनपद में जैन साहित्य सर्जन की सुदीर्घकालीन परम्परा रही है। जैन यतियों, साधुओं ने यहां संस्कृत, राजस्थानी, हिन्दी में अच्छी रचनाएं लिखीं। इन्हीं में से कतिपय उल्लेखनीय राजस्थानी जैन रचनाकारों और उनकी कृतियों में यथा-प्रसंग वर्णित ऐतिहासिक प्रसंगों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है। 1. मल्लधारी हेमचंद अभयदेव के शिष्य मल्लधारी हेमचंद्र ने वि.सं. 1180 में मेड़ता और छत्रपल्ली में रह कर अपनी प्रसिद्ध कृति “भवभावना” का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वार, जीवसमासशतक जैसी जैन धर्म की अनिवार्य रचनाओं की भी आपने विस्तृत व्याख्याएं की । मल्लधारी हेमचंद्र ने एक विशाल संघ के साथ शत्रुजय और गिरनार की यात्रा की थी। 1. डॉ. बी. पी. जोहारपुरकर - भट्टारक संप्रदाय, पृ. 124-25 2. जे. एस. पी.12, पृ. 102 3. सं. म. विनयसागर - खरतरगच्छ का इतिहास,प्रथम खण्ड

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