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राजस्थानी जैन साहित्य
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आसकरण
(नेमी अथवा चूनड़ीढाल, वि.सं. 1849', धन्ना सतढालियौ, वि.सं. 1859, नागौर ।
इन जैन कवियों की हेमतिलक सूरि संधि (15 वीं शताब्दी)3, विजयसिह सूरि विजय प्रकाश रास (वि.सं. 1652)4, श्री जिनराज सूरि निर्वाण रास (वि.सं. 1719)5 नामक रचनाओं में नागौर जनपद के संदर्भ में ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। प्रथम रचना चालीस पद्यों में रचित हैं। इन पद्यों के अनुसार नागौर के गांधी वीजड के दोलड़ नामक पुत्र हुआ। उसके 14 वर्ष के होने पर बड़गच्छ के वादिदेव सूरि परम्परा के आचार्य जयशेखर सूरि का वहां पर्दापण हुआ। दोलड़ कुमार ने उन आचार्य श्री की धर्मदेशना सुनी और उससे प्रभावित होकर कडलू नगर के ऋषभ मंदिर में सं. 1353 में मुनि-दीक्षा ग्रहण की । उनका दीक्षा नाम 'हेमकलश' रखा गया। पढ़ लिख कर वे विद्वान बने और सं. 1370 में उन्हें वाचनाचार्य का पद दिया गया। उस समय पालही साह ने उत्सव किया। अनुक्रम से विहार करते हुए वे नागौर आये तब सं. 1374 के जेठ सुदि 2 को उन्हें वज्रसेन सूरि ने अपने पट्ट पर स्थापित किया। इस आचार्य पद का उत्सव नाहरवंशीय फम्मणु श्रावक ने किया था। अन्त में आरासन में आने पर उन्होंने अपना अन्तकाल समीप आया देखा, तो अनशन आराधना करके शरीर त्याग दिया। सं. 1400 से बिलाड़ पद्मसाह के उत्सव द्वारा उनके पट्ट पर रत्नशेखर सूरि को स्थापित किया गया। __दूसरी रचना में विजयसिंह सूरि की आध्यात्मिक विजय की कथा कही गई है। पार्श्वनाथ की स्तुति के साथ संपूर्ण यात्रा का वर्णन किया गया है। मरुमण्डल में कवि ने मेड़ता नगर का विस्तार के साथ वर्णन किया है। इस नगर की कीर्ति समस्त संसार में हैं। यहां का राजा मान्धाता चक्रवर्ती राजा है। मेड़ता अलकापुरी के समान सम्पन्न है।
1. जैनरत्न पुस्तकालय, जोधपुर में संगृहीत 2. जैन गुर्जर कविओ, भाग-3, पृ. 333 3. सं. नारायणसिंह भाटी - परम्परा, भाग 48, 1978 ई.पृ. 36 4. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 341-364 5. वही, पृ. 191-200 6. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 344-46; चौ. 32-56