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जैन-साहित्य में अगड़दत्त कथा-परम्परा एवं
कुशललाभ कृत अगड़दत्तरास
जैन-साहित्य में अगड़दत्त से सम्बन्धित कथा को अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जैन समाज में यह कथा अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है । जैन लेखकों ने इसे लोक से ग्रहण किया है अथवा किसी प्राचीन साहित्य-कथा-चक्र से, यह उस समय तक निश्चय कर पाना दुष्कर कार्य है, जब तक इसके प्रमाण स्वरुप कोई सूत्र नहीं मिले। जैन समाज में इसके प्रचार का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि अति प्राचीन काल से इस कथा को आधार बनाकर जैन विद्वानों ने अनेक आख्यानों और काव्यों की रचना की। कई-एक ग्रंथों में इस कथा को दृष्टान्त रुप में उद्धृत किया गया है। संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, गुजराती और अन्य अनेक भाषाओं में अगड़दत्त को आधार मानकर साहित्य रचा गया है। यह साहित्य गद्य और पद्य दोनों रुपों में समान रूप से उपलब्ध है।
उक्त भाषाओं में लिखित अगड़दत्त सम्बन्धी सर्वाधिक प्राचीन रूप का निर्धारण तो नहीं किया जा सकता, किन्तु सबसे प्राचीन रूप जो अब तक प्राप्त हुआ है वह है पांचवी शताब्दी में संघदास गणि द्वारा “रचित वसुदेव हिण्डी कथा” एवं अवान्तर कथा रूप में इसका उपविभाग “धम्मिल हिण्डी" ।2 आठवीं शताब्दी के जिनदास गणि ने अपनी “उत्तराध्ययन चूर्णिका” में इसका प्रयोग दृष्टान्त रूप में किया है । इसके पश्चात् यही कथा वादि वेताल शान्ति सूरि कृत उत्तराध्ययन की प्राकृत (पाइय) टीका
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श्री भंवरलाल नाहटा, अगड़दत्त कथा और तत्संबंधी जैन साहित्य वरदा, वर्ष 2, अंक 3, पृ.2 डॉ. जे. सी. जैन, प्राकृत जैन कथा साहित्य, पृ. 115-163
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