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राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं
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प्रेमलाच्छी का विवाह दिखाने ले गई। चन्द्रराज भी छिपकर वहीं उनके साथ जा पहुंचा।
प्रेमलालच्छी का वर सिंहलपुरी का राजकुमार कनकध्वज कोढी था, अतः उसके स्थान पर एक दिन के लिए राजा चन्द्रराज को वर बना दिया गया। रात्रि को यह भेद प्रेमलालच्छी के सम्मुख प्रकट हो गया। उसने राजा चंद्रसेन के साथ चलने का आग्रह किया, किन्तु चंद्रराज ने उसे कुछ दिनों बाद अपने साथ ले जाने का आश्वासन दिया। वह वहां से चलकर पुनः पेड़ के कोटर में बैठ गया और आभापुरी आ पहुंचा।
जब वीरमती को इस बात का पता चला तो उसने चंद्रराज को मंत्र विद्या से कूर्कट बना दिया। एक दिन शिवनट को यह कूर्कट पुरस्कार स्वरुप प्राप्त हुआ। शिवनट कूर्कट सहित भ्रमण करता हुआ सिद्धतीर्थ पहुंचा। वहां तीर्थ में स्नान करते ही चन्द्रराज ने अपना पूर्व रूप प्राप्त किया। तदनन्तर प्रेमलालच्छी को विरहाग्नि से मुक्त करके उसके साथ अपने राज्य को लौटा । उसने वीरमती को दण्डित कर अपनी रानियों के साथ सुखमय जीवन बिताने लगा। कथा का अन्त चन्द्रराज के पूर्व भव के वृत्तान्त के साथ हुआ है।
__ वर्णनात्मकता की दृष्टि से यह एक अनुपम रचना है। नट ने अपनी नाट्यकला प्रदर्शन के समय विभिन्न जनपदों की स्थानीय विशेषताओं का रोचक वर्णन किया है। जैन समाज में प्रचलित राजा चंद्रराज और प्रेमलालच्छी की लोककथा को अति चतुराई के साथ अपनी रचना का आधार बना कर उसमें जैन कथानक रुढ़ियों का समावेश कर मौलिक रूप में विकसित किया है। 12. मृगलेखा चौपई
___ मगलेखा एवं मृगांकलेखा चौपई नाम से इसके अनेक जैन रूपान्तर उपलब्ध होते हैं। जैन साहित्य में प्रचलित इस कथा का प्राचीनतम रूप संस्कृत के कवि भट्ट अपराजित की मृगांकलेखा में मिलता है किन्तु यह रचना अब अनुपलब्ध है। राजस्थानी भाषा का सबसे प्राचीन रूप जैन श्वेताम्बर कवि वच्छ कृत "मृगांकलेखा चरित्र” में है। उपलब्ध प्रति में इसका रचनाकाल वि. सं. 1520 के आस-पास
1. गवेषणा पत्रिका, उदयपुर (जुलाई 1953), पृ. 136 2. डा. रामगोपाल गोयल-राजस्थानी के प्रेमाख्यान, परम्परा और प्रगति, राजस्थान प्रकाशन,
जयपुर, सं. 1969, पृ. 107