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राजस्थानी जैन साहित्य
कहा गया है।
आलोच्य रचना जैन ऋषि रायचंद ने वि.सं 1838 की भादवा वदि एकादशी को जोधपुर नगर में की । इसमें 62 ढालों में मृगलेखा की प्रेमनिष्ठ सरस कथा का वर्णन किया गया है। कवि ने इस कथा की प्रेरणा “शीलतरंगिणी” नामक रचना से ली किन्तु उसकी प्रस्तुति में पूर्ण मौलिकता का प्रयोग किया । प्राप्त हस्तलिखित प्रति के अनुसार इसकी कथा इस प्रकार है
उज्जैनी के सेठ धनसागर की कन्या अति रूपवती थी। उसके लावण्य को देखकर सेठ सागरदत्त का पुत्र सागरचंद उस पर मोहित हो गया । सागरचंद के विरह को जांचकर उसका विवाह मृगलेखा के साथ कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् सागरचंद अपनी मुद्रिका मृगलेखा को देकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने को गया। पीछे मृगावती के चरित्र पर आशंका कर उसे गर्भावस्था में ही घर से निकाल दिया गया। मृगावती पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा । प्रसूत पुत्र को जंगल में कोई उठा ले गया। उसके शील भंग करने के प्रयत्न किए गए। किन्तु धैर्यपूर्वक उसने सब कष्ट सहते हुए अपने सतीत्व की रक्षा की। अन्त में उसका पुत्र बड़ा हो कर किसी राजकुमारी से विवाह कर अपनी माता से मिला। सागरचंद भी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मृगावती के पास आया और सब सुख पूर्वक रहने लगे। कथा का अन्त मृगांकलेखा और सागरदत के पूर्व भव वृतांत से समाप्त किया गया है । 13. कलावती चौपाई
कवि रिख साधु ने इसकी रचना वि.सं. 1861 में आश्विन शुक्ला 1, बुधवार को की । रचना का विषय अवन्ती के राजकुमार शंख और राजकुमारी कलावती के प्रणय से सम्बद्ध है । जैन कवि रिखसाधु ने नायक-नायिकाओं के प्रेमपरक मनोभावों का अति सरस चित्रण किया है। प्रसंगानुसार लोक प्रचलित कथानकरुढ़ियों द्वारा कथा का विकास किया गया है। नगर में भ्रमण करते हुए शंखकुमार पर अनेक युवतियां आसक्त हो गई । नगरवासियों की शिकायत पर उसे देश निकाला दे दिया गया। मार्ग की अनेक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर उसने एक राक्षस की कन्या से विवाह किया। अनेक सिद्धियां उसने उससे प्राप्त की। एक दिन वह राजकुमारी
1. जैन मंदिर, पानीपत 2. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, हं.नं. 5991