Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 63
________________ जैन देवियां एवं तत्सम्बन्धी जैन रचनाएं जैनधर्म ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समन्वय है। निराकार आत्मा जहां जैन धर्म के ज्ञानमार्गी स्वरूप को स्पष्ट करती है, वहीं वीतरागी जिनेन्द्र के स्वरूप का स्तवन उनके भक्तिमार्ग की ओर संकेत करता है । जैन धर्म में भक्ति का यह आगम बौद्ध एवं वैष्णव-संस्कृति का परिणाम है। अपने धर्म को अधिक व्यापक बनाने के लिये जैन धर्माधिष्ठताओं ने वैष्णवी राम और कृष्ण के अवतारों की कथा को ही कतिपय परिवर्तनों के साथ ग्रहण कर लिया। उनमें व्याप्त गणेश, भैरव आदि की पूजा भी हिन्दू धर्म का प्रभाव है। ___यों तो जैन समाज में देवी-पूजा के संकेत तीसरी शताब्दी (विक्रमी) से ही लक्षित होने लगते हैं किन्तु उसे साकार स्वरूप वैष्णव भक्ति आन्दोलन के साथ 13 वीं और 14 वीं शताब्दी में ही मिला। हिन्दू देवी महिषासुरमर्दिनी का रत्नप्रभसूरि द्वारा जैन धर्म में दीक्षित कर “सच्चियामाता” के रूप में मान्यता देना तथा बौद्ध देवी “कुरकुल्ला” का देवसेनसूरि के उपदेश को सुनकर जैन धर्म ग्रहण करना आदि इसके प्रमाण हैं । अतः स्पष्ट हैं कि जैनधर्म में देवी-पूजा बौद्ध एवं वैष्णवों में प्रचलित देवी भक्ति का परिणाम है। यद्यपि जैनधर्म में देवी भक्ति वैष्णव-भक्ति परम्परा का प्रतिफल है, पर जैनियों ने उनके स्वरूप को ज्यो का त्यों स्वीकार कर लिया हो, ऐसी बात नहीं है। उन्होंने उन्हें अहिंसावादी स्वरूप दे दिया था। भक्तों की इच्छा को जैन-देवियों ने अपनी इसी प्रवृत्ति द्वारा फलित किया है। सिद्धि की प्राप्ति के लिये अनेक मंत्र तंत्र, स्तवन सज्झाय का भी उन्होंने विधान किया है । “भैरव पद्मावती कल्प” “चतुःषष्टियोगिनी स्तोत्रम्”, “चतुः षष्टियोगिनी पूजनम्”, “योगिनी-तन्त्रम्” आदि ग्रन्थों का इस दृष्टि से

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