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राजस्थानी की प्रमुख जैन काव्यशास्त्रीय रचनाएं
(कोशपरक साहित्य) को भी राजस्थानी आचार्यों ने काव्यशास्त्रीय विषय-वस्तु के रूप में विवेचित किया।
राजस्थानी साहित्य में लक्षण ग्रंथों की परम्परा का इतिवृत्त जानने पर यह स्पष्ट होता हैं कि जैसलमेर के रावल हरराज के आश्रित एवं गुरु खरतरगच्छीय वाचक कुशललाभ द्वारा यहां लक्षण ग्रन्थों का लेखन आरम्भ हुआ। इस दृष्टि से राजस्थानी काव्यशास्त्र के इतिहास में राजस्थानी जैन काव्यशास्त्रियों द्वारा लिखित रचनाओं का विशिष्ट महत्व हैं । कुशललाभ राजस्थानी का ही नहीं हिन्दी का भी प्रथम काव्यशास्त्री है। इसके अतिरिक्त अन्य जैन राजस्थानी काव्यशास्त्रियों में उल्लेखनीय नाम हैं-सहजसुंदर, उत्तमचंद भंडारी, उदयचंद भंडारी का । इनकी महत्वपूर्ण काव्यशास्त्रीय रचनाओं का विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। पिंगल शिरोमणि
कशललाभ ने पिंगल शिरोमणि की रचना वि.सं. 1635 की श्रावण शुक्ला नवमी, रविवाव को पूर्ण की। इसके प्रथम प्रकाश से चतुर्थ प्रकाश तक 104 प्रकार के मांत्रिक, वर्णिक, संकर छंदों का भेदोपभेद सहित विवेचन हुआ है। गाहा, दूहा, सोरठा, छप्पय छंदों का विशद विवेचन किया गया है। पांचवे प्रकाश (अध्याय) में कुशललाभ ने काव्यशास्त्र में प्रचलित प्रस्तार विधि का कथन किया है । छन्द-विवेचन के उपरान्त छठे प्रकाश में कवि ने 75 प्रकार के अलंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन प्रस्तुत किया है । लेखा, अनुज्ञा, अवज्ञा को एक ही अलंकार बताकर कवि ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। इसी प्रकार कुशललाभ ने काव्यशास्त्र की एक अनूठी, नवीन परम्परा “सासोतरा कथन” से भी अवगत कराया है।
पिंगल-शिरोमणि का सातवां अध्याय “उडिंगल नाममाला है। इसमें कवि ने 32 नामों के विविध पर्याय प्रस्तुत किये हैं। पिंगल शिरोमणि का अन्तिम अध्याय “गीत प्रकरण” नाम से है। इसमें डिंगल गीतों की परम्परा बताते हुए चालीस प्रकार के विविध गीतों के लक्षण-उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। कवि ने सम्पूर्ण विषय-वस्तु को समझाने के लिये अनेक कथाओं विशेषकर रामकथा का सहारा लिया है। पिंगल शिरोमणि की सम्पूर्ण विषय वस्तु को निम्नलिखित चार अध्यायों में व्यवस्थित किया जा सकता है
अध्याय 1: छंद निरूपण अध्याय 2: अलंकार निरूपण