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राजस्थानी की प्रमुख जैन काव्यशास्त्रीय रचनाएं
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संग्रह जोधपुर में महाराजा मानसिंह के आश्रय में वि.सं. 1890 में किया । इन सबका खुलासा कवि ने ग्रंथ के आरंभिक चार दहों में किया है। .
"ग्रंथ की प्राप्त हस्तलिखित प्रति बड़े गुटका आकार में है ।2 आलोच्य रचना काल की विषय वस्तु 103 पत्रों में लिपिबबद्ध है। कवि ने ग्रंथ की पूर्वपीठिका के रूप में कवि, कुकवि, दग्ध, अदग्धाक्षर, शब्द की उपयुक्तता, बुध, कुबुध व्यक्ति द्वारा काव्य के प्रति न्याय आदि की चर्चा की हैं। इसके उपरान्त काव्यत्व, साहित्यसार नामकरण, काव्य-दोष, काव्य में विभक्तियों, उपसर्गों के प्रयोग आदि की व्याख्या करते हुए शब्दशक्तियों के सोदाहरण भेदोपभेदों की विस्तार से चर्चा की है । विवक्षित वाच्य ध्वनि का लक्षण देते हुए कवि ने कहा है
होत विवच्छित वाच्य ध्वनि अविधा सौ द्वै जान ।
असंलक्षक्रम क्रम रहित संलक्षकक्रमवान ।। कवि ने शब्द शक्तियों को चित्र-यंत्र द्वारा भी स्पष्ट किया है। “साहित्य-सार" ग्रंथ की प्रशंसा करते हुए लिखा है---
साहित सिंधु अथाह को थाह गहन जो सार । सुद्ध सुगम संपूर्ण मत रच्यौ सुकर निरधार ॥ असमजते भासै कहूं अर्थ असुधता भाय। किये विचार असुद्ध नहिं है यहां इष्ट सहाय। किय प्रसंस दिगविजय जब जावनै षंडहि लोय।
षड सके कोउन कवि उचत प्रसंसा सोच ।। प्रारंभिक अंश का शीर्षक साहित्यसार होने के तत्संबंधी अन्य प्रकरणों को भी कवि ने इसी शीर्षक में समाहित कर लिया है। वस्तुतः यह रचना उक्त चारों कृति
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1. सुमर गनेसरु सारदा, इष्ट सकल सुषधांम।
लै सहाय ग्रंथ सु लिखौ सहित सार सुनांम ।। 1 ।। शब्दसिद्ध व्याकरण ते अर्थ सिद्ध साहित्य । सप्रयोजन अर्थ सुं लिखौ सहित नौ तन कृत्य ॥2॥ प्रकरण च्यार लिख्यां जुदे अपने अपने नाम । साहित सार सुं एकठा लिख्या नाम अभिरांम ॥3॥ इस शब्दारथ चंद्र का दूषन दर्पण दोय।
रस निवास त्रय चतुरथ सुछंद विभूषन जोय ।।4।। 2. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, ह. लि. ग्रं. 13780(3)