Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ 56 राजस्थानी जैन साहित्य 3. है। इसमें कुल 366 छंद है। प्रथम 362 छंदों में देवी दुर्गा की उत्पत्ति एवं उसके सुकृत्यों का पद्यबद्ध निरूपण किया गया है तथा अन्तिम चार छंदों (कवित्तों) में कृति (सातसी) का माहात्म्य देते हुए कवि ने अपना परिचय दिया है। कुशललाभ की इस रचना का मूल स्त्रोत दुर्गासप्तशती का पौराणिक आख्यान माना जा सकता है । किन्तु आख्यान मे कुशललाभ ने आवश्यकतानुसार निम्नलिखित परिवर्तन कर मौलिकता प्रदान की है1. कुशललाभ ने कथा को शीर्षक अथवा अध्यायों में विभक्त नहीं किया जबकि दुर्गा सप्तशती में सारी कथा अध्यायों में कही गई है। साथ ही यहां मूल कथा में वर्णित देवी अथवा राक्षसों की सेना, उनके रण-कौशल अथवा महात्म्य आदि का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। 2. यहां कथावाचक स्वयं कवि हैं । ऋषि मार्कण्डेय जी की ओर मात्र संकेत ही किया गया है कि राजा और वैश्य ने उनसे देवी-चरित्र को समझाने का निवेदन किया। आलोच्य कृति में सुरथ और वैश्य (प्रधान पुत्र) जंगल में यकायक मिले हैं, जहाँ उन्होंने न अपना परिचय आपस में लिया है और न ही अपने अन्तर्द्वन्द्व का बखान किया है। 4. “महामाई दुर्गा सातसी” में मधु कैटभ राक्षसों का जन्म भगवान विष्णु के कानों से हुआ है न कि कानों के मैल से। उसी भांति चेतना प्राप्त होने पर दोनों राक्षसों ने भगवान विष्णु को युद्ध के लिए ललकारा है, जबकि “मार्कण्डेय पुराण” में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। पर्वकाल में देवताओं एवं राक्षसों के बीच सौ वर्षों तक हए युद्ध का वर्णन, राक्षसों की सेना के प्रति महिषासुर व देवताओं के नेता इन्द्र का भी कवि ने "सातसी” में कोई, उल्लेख नहीं किया। यहां तो कवि ने मधु और कैटभ के वध के तुरन्त बाद महिषासुर का देवताओं के साथ युद्ध दिखा दिया है। सातसीकार ने सुग्रीव और शुंभ-निशुंभ के वार्तालाप को पूर्णतः नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। यहां सुग्रीव को अत्यन्त चतुर कहकर शुंभ देवी के पास भेजता है, जहां सुग्रीव अपनी बुद्धि के अनुसार सारी बातचीत देवी के साथ करता है, जबकि मार्कण्डेय पुराण में शुंभ द्वारा कथित संदेश ही सुग्रीव देवी को सुनाता है। इसी भांति चण्ड-मुण्ड की मृत्यु के पश्चात् शुभ की सुग्रीव

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128