Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 57
________________ 46 राजस्थानी जैन साहित्य स्पष्ट होता है कि जैन सम्प्रदाय में पूर्व जन्म एवं कर्मवाद को यथोचित स्थान मिला है। अधिकांश रचनाएं ढालों, प्रकाशों, विलासों अथवा छन्द विशेषों में विभक्त हैं । अन्त में पुष्पिका अवश्य मिलती है, जिनमें रचना-काल, गुरु परम्परा, गच्छ परम्परा, लिपिकाल आदि का वर्णन किया गया है । जैन प्रेमाख्यानकों का मूल उद्देश्य शीलव्रत की प्रतिष्ठा करना है । शीलव्रत से तात्पर्य प्रेम की एकनिष्ठता से है । इसीलिये जैन प्रेमाख्यानकों में आरंभ में घोर शृंगार दिखाई देता है किन्तु उसका अन्त शान्त रस से होता है । इन प्रेमाख्यानों में चित्रित शृंगार में अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु नायक-नायिका विपत्तियां भोगने के बाद भी प्रलोभनों से दूर रह अपने एकनिष्ठ प्रेम की अडिगता सिद्ध करते हैं। यह उपक्रम जैन कवियों-मुनियों की दूरदर्शिता एवं व्यावहारिकता का परिणाम है। उनका यह वैराग्य चित्रण मात्र कल्पना की उड़ान नहीं बल्कि जीवन के भोग में से तप कर निखरा हुआ था।' तेजसार, अगड़दत्त स्थूलभद्र, नेमीनाथराजुल, पृथ्वीराज वाग्विलास, विद्याविलास, प्रेम-विलास- प्रेमलता, बच्छराज, मृगलेखा कमलावती आदि से सम्बन्धित रचनाएं इस कथ्य की साभिप्राय प्रामाणिक कृतियां हैं । जैन कवियों ने अपनी प्रेमाख्यानक रचनाओं को और अधिक व्यावहारिक एवं प्रामाणिक बनाने निमित्त पुराणों में प्रचलित लोक प्रसिद्ध उपाख्यानों यथा-नलोपाख्यान, शकुन्तलोपाख्यान, कामकंदला आख्यान आदि को अपनी कथाओ का आधार बनाया है। इन अलौकिक एवं पौराणिक प्रेमाख्यानों के आदि और अन्त में इन्होंने अपने सिद्धान्तों का आरोपण किया है। प्रत्येक रचना में किसी जैन मुनि से उपदेश सुन कर दीक्षित होना और वृद्धावस्था में अपने पुत्र को राज्य सौंपकर संसार से वीतराग ग्रहण करने का उल्लेख इनमें मिलता है । 2 यदि इन प्रेमाख्यानों में इन धार्मिक सिद्धान्तों के आरोपण को पृथक कर दिया जाय तो ये रचनाएं विशुद्ध सामान्य प्रेमाख्यानक रचनाएं . बन जायेंगी । इस प्रकार जैन प्रेमाख्यानक रचनाओं में सम्पूर्ण गृहस्थ जीवन का चित्रण मिलता है । यहां नायक-नायिका जब संसार त्याग करते हैं तो सभी सांसारिक सुखों उपभोग के उपरान्त अपने पुत्र को राजपाट संभला करके । अतः इन रचनाओं का अन्त सुखद शान्त रस में होता है तथा लोक रति का पर्यवसान ब्रह्म रति में होता है । इसीलिये श्रीचंद जैन ने कहा है, “जैन काव्य में शान्ति या शम की प्रधानता है ।........ 1. 2. डा. रामगोपाल गोयल, राजस्थानी के प्रेमाख्यानः परंपरा और प्रगति, पृ. 160 अनेकान्त (त्रैमासिक शोध पत्रिका), जुलाई - दिसम्बर 1977, पृ.59 (लेखक का लेख)

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