________________
राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं
काका के पुत्र थे। उनका विवाह उग्रसेन की दुहिता राजमती राजुल के साथ हुआ था। जब वर यात्रा उग्रसेन के द्वार पर पहुंची तो वहां एक बकरे का वध बारातियों के सत्कार हेतु किया जा रहा था। इस घटना को सुनकर नेमिनाथ को अत्यधिक ग्लानि हुई । वे विवाह किए बिना ही वहां से चल पड़े। राजमती निरन्तर वर के घोड़े का मार्ग जोहने लगी। उसे वर द्वारा समाचार मिला कि वह लग्न की तुलना में तप को अधिक महत्व देता है।
__ जैन-साहित्य में यह आख्यान इतना लोकप्रिय रहा कि देलवाड़ा के मन्दिर के शिल्प में इन प्रसंगों का आलेखन किया गया। पाटण के मंदिर में भी नेमिनाथ की रथ यात्रा का चित्रण मिलता है। कवि ने इस रचना को फागु संज्ञक प्रमाणित करने हेतु वसन्त विहार का चित्रण किया है। आकार की दृष्टि से यह रचना काफी छोटी है। 27 छन्दों की इस प्रेमाख्यानक रचना में सात खण्ड है और प्रत्येक खण्ड की प्रथम कड़ी दूहे में है, दूसरी रोला में। अपने प्रियतम के दर्शनार्थ जिस शृंगार के साथ वह प्रतीक्षारत है, देखते बनता है
किम-किम राजल देवी तणउ सिणगार भणेवउ। चंपई-गोरी अई धोई अंगि चंदनु तणु लेव ।।
पे भराविउ जाई कुसुमि कसतूरी सारी । सीमंतई सिंदुर रेह मोतीसरि सारि ।।3 ।।
मरगद जादर कंचुयउ, कुड कुल्लह माला ।
करि कंकण मणिवलय, चूड, खड़ कापई बाला ।।20 ।। 3. पृथ्वीराज वाग्विलास
आचार्य मेरुतुंग के शिष्य माणिक्यचंद्र सूरि की यह रचना' विषय एवं बंध दोनों ही दृष्टि से उल्लेखनीय है । कवि ने इसे वचनिका शैली में लिखा है । सौष्ठवयुक्त गद्य की दृष्टि से डा. शिवस्वरूप अचल ने इसकी भाषा को राजस्थानी का सबसे पहला साहित्यिक रूप माना है।2
1. कवि की अन्य रचनाएं हैं—मलयसुंदरी कथा (वि.1478), गुणवर्मा चरित्र, सतरभेदी पूजा
कथा, चतुपूर्वी कथा, शुकराज कथा, संविभाग-कथा आदि । 1. राजस्थानी गद्य साहित्यः उद्भव और विकास, पृ.54