Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 47
________________ 36 राजस्थानी जैन साहित्य माणिक्यचंद सूरि ने इसकी रचना वि.सं. 1478 में की। कृति में महाराष्ट्र के पहुगणपुर पट्टण के राजा पृथ्वीचंद्र तथा अयोध्या के राजा सोमदेव की पुत्री रत्नमंजरी का प्रणयाख्यान वर्णित है। स्वप्न में पृथ्वीचंद्र को देवी राजकुमारी को प्राप्त करने की प्रेरणा देती है । वह सेना सहित उसके स्वयंवर में वरमाला लेकर पहुंचता है किन्तु वैताल अपनी माया से रत्नमंजरी को ले जाता है । पर अन्त में पृथ्वीचंद देवी की सहायता से रत्नमंजरी को प्राप्त कर लेता है । “पृथ्वीराज वाग्विलास” के द्वितीय विलास में रचना का काव्यत्व और जैन शैली के स्वरूप का सुंदर परिचय प्राप्त किया जा सकता है। प्रेमाख्यान को पल्लवित करने हेतु कवि ने यहां वसंत के सुन्दर वर्णन के साथ ही नायिका के सोलह शृंगार, वन-विहार, संयोग आदि के सुंदर चित्र खींचे हैं। 1 सात द्वीप, सप्तक्षेत्र, सप्तनद, षट् पर्वत, बत्तीस सहस्र देश नगर, राजसभा, वन, सेना आदि जैन कथानक रुढ़ियों का भी सुंदर वर्णन हुआ है। भाषा और भाव दोनों ही दृष्टि से यह एक बेजोड़ रचना कही जा सकती है। प्रो. मजमूदार ने इसे नाम के आधार पर चौहानवंशीय प्रसिद्ध पृथ्वीराज से सम्बद्ध रचना मानने का संकेत दिया है किन्तु कथा की दृष्टि से यह पूर्णतः जैन विषयक कृति है । 4. विद्याविलास पवाडउ यह जैन आख्यान साहित्य में प्रचलित राजा विद्याविलास का चरित्र है। हीराचंद सूरि ने इसकी रचना वि.सं. 1485 में की। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में इसकी वि.सं. 1676 में लिपित एक सचित्र प्रति “विद्याविलास सचित्र रास" नाम से संगृहीत है । 3 जैन आख्यान सम्बन्धी इस रचना का मूल आधार विनयचंद्र कृत संस्कृत की रचना मल्लिनाथ काव्य ( रचना सं. 1285 के आस-पास ) है । हीरानंद ने इसी रचना के द्वितीय सर्ग में वर्णित मूर्खचट्ट और विनयचट्ट की उपकथा को अपनी रचना का आधार बनाया है । कवि ने इस कथा को पवाडा रूप में प्रस्तुत किया है- विद्या विलास नरिंद पवाडउ, हीयड़ा भितरि जाणि । अंतराय विणु पुण्य करउ, तुम्हि भाव धणेरउ आणि ॥ 1. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह- गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, अंक 13, पृ. 102 2. गुजराती साहित्य नां स्वरूपो मध्यकालीन पद्यस्वरूप 3. हलि. ग्रंथांक 10827 ( राप्रावि.प्र. जोधपुर संग्रह )

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