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राजस्थानी जैन साहित्य
के चित्र भी इस युग की जैन रचनाओं में प्रस्तुत हुए हैं। ये वर्णन उस युग की सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति का भी अहसास करवाते हैं। इनमें वर्णित वस्त्राभूषणों में मुख्य रूप से हीरचीर, सौवन पट्ट, घाघरा, पट्टकूल, दिखणी चीर, कंचुकी, मोजडी, झूल, बहिरखा, सीसफूल, नवसरहार, कंकण, नेउर, करधनी, चूड़ियाँ है
“नाक जिसी दीवानी सिषा, बाहे रतन जड़ित बहिरखा, सीसफूल, सोवन, राखड़ी, कंचन मयघड़ी रतनेजड़ी, गले अकावल नवसरहार, कंकण नेउर झंकार, खलके चूड़ी सोवन तणी, क्षुद्र घंटिका सोहामणी
केहर सिंध जिसी करि लंक, रतन जड़ित करि मेखलांक ।। श्रृंगार-प्रसाधनों का चित्रण
अंगे चंदन केसरी खोल, अधर दसन रंजित तंबोळि ।
अंजन सु अंजी आंखड़ी, जाणे विकसी कमल पांखड़ी ।' जीवन की स्वस्थता के लिये आमोद-प्रमोद अनिवार्य हैं। आलोच्य काल में रचित जैन साहित्य इस ओर भी संकेत करता है। सावन-फागुन अथवा राजा या समाज द्वारा उपयुक्त अवसरों पर अनेक सार्वजनिक उत्सवों का आयोजन किया जाता था। मनोरंजन के लिये चित्रकला गायन, नृत्य, काव्य आदि कलाओं का भी प्रचलन था। रिख साधु की रचना “कमलावती चौपई” में कलाओं द्वारा मनोरंजन का चित्रण प्रस्तुत है
माड़यों नाटक तता थेई, नाचती हो लाल सझे सोल सिणगार । कोयल सरसा कंठ, गावै गीत गाजता हो लाल, सघड़ सारंगी राग, मेल गीत गावती हो बाल। घूघट ना धमकार, ठमक ठमक पग ठवे हो लाल, फिर फिर फूंदी लेय, मधुर सारे लबे ही लाल ॥2
इन मनोरंजनों में दुर्व्यसन भी प्रचलित थे। किन्तु उन्हें समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। जैनियों द्वारा इनसे सम्बन्धित अनेक रचनाएं हैं। “तम्बाकू
1. कुशललाभ कृत माधवानल कामकंदला-आनंदकाव्य महोदधि, मौक्तिक-7, पृ.46-47 चौ.
189-194 2. श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर अजमेर की प्रति