________________
राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं
“आख्यान” शब्द की व्युत्पत्ति ख्या धातु के साथ आ उपसर्ग के योग से मानी गई हैं-असमान्तात् ख्यानं" । इसी संदर्भ में आख्यान को उपाध्यान के निकट मानना चाहिये क्योंकि मुख्य वस्तु के अनुसंधान में अवान्तर वस्तु अथवा प्रसंग का जो महत्व होता है, उसी को नवीन रूप में अभिव्यक्त करना आख्यान का उद्देश्य होता है। इसीलिये साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने कहा है—“अस्मिन्नार्थे पुनः सर्गाः भवन्त्याख्यान संज्ञका"2 अर्थात् महाकाव्य में आर्ष वाणी रूप में कही गई कथा ही आख्यान कहलाती है। यह कथन पद्य और गद्य दोनों में संभव है । इस पूर्व कथित (आख्यानं पूर्वावृत्तोक्ति) आख्यायान नामक विद्या में मात्र उत्पाद्य या काल्पनिक वस्तु ही न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
इसी आख्यान शब्द के साथ प्रेम शब्द जोड़ने से “प्रेमाख्यान” पद का निर्माण होता है। भारतीय साहित्य में इनकी अति प्राचीन परम्परा मिलती है। ऋग्वेद में उल्लिखित यम-यमी संवाद, उर्वशी-पुरुखा, सूर्यपुत्री तपती और संवरण के प्रणय-प्रसंगों में भारतीय प्रेमाख्यानों के सूत्र खोजे जा सकते हैं। महाभारत-पुराणों में भी विविध प्रेमाख्यानों का उल्लेख हुआ है। नलोपाख्यान, शकुन्तला-दुष्यन्त, अर्जुन-सुभद्रा, भीम-हिडिम्बा आदि महाभारत के गणनीय प्रेमाख्यान हैं । उषा-अनिरुद्ध के प्रेमाख्यान का विस्तृत वर्णन हरिवंशपुराण में विद्यमान हैं।
संस्कृत कथा साहित्य और काव्यों में प्रेमाख्यानों के विविध रूप दर्शनीय हैं। . 1. प्रो. मर. मजमूदार---गुजराती साहित्य ना स्वरुपो, आचार्य बुक डिपो, बडोदरा, पृ. 143,
संस्करण 1954; 2. साहित्य दर्पण,6/325