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राजस्थानी जैन-काव्य में संगीत-तत्त्व
होता है। प्रस्तुत राग का एक स्थायी और अन्तरा प्रस्तुत हैं जिसमें दार्शनिक दृष्टि से नायिका केलिरत वर्णित की गई हैं---
आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जीवई जोवई प्रीयड़ा वाट सकोमल कामिनी रे । चातक मधुरइ सांदिकि प्रीउ-प्रीउ उचरइ रे । वरसइ घणा बरसात सजन सरवरइ तरइ रे ।। प्रवचन वचन विस्तार अरथ तरवर धण रे । कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे ।। गाजर-गाजइ गगन गंभीर श्री पज्य नी देश ना रे ।
भवियण मोर चकोर थापइ शुभ वासना रे ।। "श्रीराग” को सांयकालीन संधिप्रकरण राग कहा गया है जिसमें भक्ति एवं निर्वेद की अभिव्यक्ति की जाती है। जैन-कवि पहराज की यह स्तुति उक्त लक्षण संबद्ध राग श्री में बंधित हैं
धन धन जिण (शासन) पातग नाशन, त्रिभुवन गरुअड़ गहगहाए । जासु तणउ जसुवाउ गंगाजल, निरमल महियले महमहए ।। श्री वयरस्वाभी गुरु अनुक्रमि चिहु दिसे, चंद्रकुल चउपट जाणिइए । गच्छ चउरासीय माहि अति गरुअड, खरतर गच्छ वक्खाणिइए।'
खंभावनी और सोरठी रागों का प्रमुख रस शृंगार है । इनके वर्तमान नाम क्रमशः खंभावती और सोरठ है। जैन-कवियों का बाहुल्य प्रमुखतः गुजरात, राजस्थान एवं सौराष्ट्र प्रान्तों में अधिक रहा । अतः इन प्रदेशों में प्रचलित देशज रागों का इन कवियों ने खुलकर प्रयोग किया। सोरठ एवं खंभावती रागें ऐसी ही देशज रागे हैं । खंभावती राग का एक उदाहरण प्रस्तुत है
सगल नगर सिणगारियो रे आनंद अंग न गाय रे । गोख ऊपर चढ़ी गोरड़ी रे, इणि गलि राजा आवइरे । घर घर गुड़ी उछले रे, तोरण बांध्या बारो रे । हाट पटंबर छाइया रे, भीड़ घणी दरबारो रे ।।2
1. विविध पूजा संग्रह, पृ.43 2. आनन्द काव्य महोदधि मौक्तिक 7, प्रत्येक बुद्ध चौपई, समय सुन्दर कृत, चौ.सं. 11-12