Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 39
________________ 28 होता है कि इन कवियों को संगीतशास्त्र का अच्छा ज्ञान था। उक्त रागों में से अनेक रागे आज भी अपने पर्याय नामों के साथ प्रचलित हैं। यद्यपि वैज्ञानिक अध्ययन की प्रवृत्ति से तत्कालीन रागों के लक्षणों में आज आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है, फिर भी कुछ लक्षण इनके अनुकूल मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ, राग आसावरी को शास्त्रीय दृष्टि से प्रातः कालीन राग कहा गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता होती हैं ।' सत्रहवी शताब्दी के वाचक कुशललाभ ने इसी राग में प्रातः काल का वर्णन करते हुए श्री पूज्यवाहण जी की स्तुति की है 1. 2. 3. 4. पहिलो प्रणमं प्रथम जिण, आदिनाथ अरिहंत । नामि नरेश्वर कुल तिलक, आपह सुख अनंत ॥ आ भवसागर सारिख, सुख दुख अंत न पार । सद्गुरु वाहण नी परइ, उतारइ भव पार ॥2 रामगिरी (रामग्री) राग का वर्तमान नाम रामकली अथवा रामकरी है । इसे प्रातः कालीन संधि प्रकाश राग माना जाता है। इसमें भक्ति निर्वेद की भावना के साथ वियोग शृंगार का वर्णन भी किया जाता है । 3 जैन साहित्य में इस राग में बंधे गीत लक्षणानुकूल हैं। जहां कवि कुशललाभ अपनी भक्त्यात्मक गीति रचना “ पूज्यवाहण गीतम्" में इस राग में भक्ति और निर्वेद के उपदेश का गान कर रहे हैं वहीं कवि धर्मकीर्ति वियोग के स्वर इस रूप में प्रस्तुत करते हैं 5. राजस्थानी जैन साहित्य श्यणी सोहद चंद स, दिनकर सोहइ दीस। तिम "वछा" बोहिथ कुलइ, पूरउ मनह जगीस ॥ गूडमल्हार गौड़ मल्हार का अपभ्रंश है । इसे कुछ संगीतशास्त्री ऋतुराग भी कहते हैं, क्योंकि इसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है तथा वर्षा का ही इसमें शृंगार वर्णन लक्ष्मीनारायण गर्ग; संगीत - विशारद, पृ. 256 सं. भंवरलाल अगरचन्द नाहटा, ऐतिहासिक जैन- काव्य संग्रह, पृष्ठ 114 आचार्य उत्तम राय शुक्ल, भारतीय संगीत संस्करण 1958 ई. धर्म मारग उपदेशता, करता करता विषय विहार रे । आया जी नगर त्रंबावती, श्री संघ हर्ष अपार रे ||35 || सूफ ते सद्दहणा खरी, सुगुरु सेवा सिकलात रे । पोत सुरासुर पोसहा, मकमल प्रवचन मात रे ||42 ॥ विविध पूजा-संग्रह, पृ. 211

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