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राजस्थानी जैन साहित्य
उल्लेख प्रस्तुत हैं
दासी हे सखि दासी हे दोय हजार, रुपे है ससि रूपे है रनि रम्भावणीजी। हाथी हे सखि हाथी हे हेवर हेम,
परिघल हे पहिरावणी जी ।।14 ।। पृ. 13 आलोच्य काल की जैन रचनाओं से स्पष्ट होता है कि इस काल में अन्तर्जातीय विवाहों एवं बहुपत्नी विवाह का भी प्रचलन था। (नलराज चौपई, पुष्पसेन पद्मावती री बात, माधवानल कामकंदला चौपई)
_ वि.सं. 1600-1900 तक रचित जैन रचनाओं में नारी की स्थिति के संदर्भ में भी जानकारी मिलती है । इस युग की जैन रचनाओं में स्वकीया प्रेम की प्रधानता है। भीमसेन हंसराज चौपई (वि.सं. 1643) में उल्लेख है कि जब मदन मंजरी अपने विवाह का निर्णय कर लेती है तो वह मात्र अपने प्रिय के प्रति ही समर्पित हो जाती है। पिता की आज्ञा का वह उल्लंघन कर त्रिपुरा देवी के मन्दिर को जाती है और वहाँ वह अपने इच्छित वर भीमसेन से विवाह कर लेती है।'
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इस युग में नारी पूर्णतः स्वंतत्र थी। प्रायः उस पर पुरुष की मनमानी ही चलती थी। वह मात्र भोग्या समझी जाती थी। थोड़ी सी शंका पर पुरुष नारी के साथ दुर्व्यवहार करने लगता था। न चाहते हुए भी उसे पर पुरुष की शैया सजानी पड़ती थी। जटमल कृत "गौरा बादल चौपई" में पद्मिनी का रत्नसेन के प्रति यह निवेदन उस सामाजिक इतिहास संदर्भ की ओर संकेत करता है
“कह रानी पद्मावती, रतनसेन राजान । नारि न दीजै आपणी, तजिये, पीव पिरान ।। तजियै पीव पिरांन, और कू नारि न दीजै, काल न छटै कोय, सीस दै जग जस लीजै । कलंकै लगावै आपकों, मो सत खोयै जान,
कह रानी पदमावती, रतनसेन राजान ।।82 ।। “परदा प्रथा” इस युग की महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। आलोच्य काल में रचित जैन रचनाओं में वर्णित चित्रणों से स्पष्ट होता है कि इस युग की राशियाँ एवं
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एल. डी. इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद, ग्रंथांक-ला.द.1217 छंद-151-193