Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ मध्यकालीन राजस्थानी जैन रचनाओं में......संदर्भ (वि.सं. 1600 - वि.सं. 1900) 23 बड़े घराने की स्त्रियां परदे में ही रहती थी। अनजान पुरुष उनके अन्तःपुर तक नहीं पहंच सकता था। इसीलिये बादशाह के लिये राघव चेतन पद्मिनी नारी की जाँच तेल में छाया देखकर करने का निवेदन करता है __ "राघव कहै नरिंद सुनि, गरमहल में न जाय, ___ छाया देखू तेल में, नारी देऊँ बताय ।।50 ।। मध्ययुगीन जैन रचनाओं का एक विषय वेश्या-गमन भी रहा है। प्रायः जैन मनियों द्वारा रचित स्थलिभद्र सम्बन्धी कथा कोशा नामक वेश्या से ही सम्बन्धित है। उसके द्वारा जैन कवियों ने प्रेम में निहित शील और जैन धर्म में शम भाव की स्थापना की हैं। इस कथा से यह भी स्पष्ट होता हैं कि आलोच्य काल में वेश्या वृत्ति प्रचलित थी, किन्तु उनका भी शील के प्रति आग्रह था। यही कारण हैं कि श्रावक द्वारा काम-निवेदन करने पर कोशा नामक वेश्या उसे नेपाल से रत्नजड़ित कम्बल लाने को कहती है। समाज का आधार फलक उसमें प्रचलित रीति-रिवाज, आचार-विचार होते हैं। इन्हीं रुढ़ियों के द्वारा संस्कृति अपना स्वरूप निर्धारित करती है। उस युग की जैन रचनाओं में विभिन्न जातियों, समुदायों की ऐसी अनेक परम्पराओं के प्रति संकेत चित्रित हैं। इस रूप में आज के अनेक विश्वास एवं रुढ़ियाँ तत्कालीन समाज में भी प्रचलित थी। इन जैन कवियों की रचनाओं में जो संकट आये हैं, उन्हें वे पूर्व जन्म के कर्मों का फल ही मानते हैं। कुशललाभ की ढोला मारवणी चौपाई, पार्श्वनाथ दशभव स्तवन एवं केशव कृत सदयवत्स सावलिंगा चौपाई रचनाएँ इसके प्रमाण हैं। स्त्री का अधिक दिनों तक पीहर में रहना, पुरुष का अधिक दिनों तक ससुराल में रहना, लड़की का अधिक दूर विवाह न करना, वीरों और प्रियजन पर 'लूण' उतारने की प्रथाओं के प्रति जटमल कृत गौरा बादल चौपई, केशव कृत सदयवत्स सावलिंगा चौपई, रत्नप्रभ कृत रणसिंध कुमार चौपई, कुशललाभ की रचनाओं में उल्लेख है। इसी प्रकार अनेक अंधविश्वासों यथा-मंत्र-तंत्र, जात देने से संतानोत्पति का होना, छींक, भूत-प्रेत, दक्षिणांग से पक्षियो का बोलना, वृक्ष-पूजन, नर-बलि आदि पर अटूट श्रद्धा थी। समाज के प्रमुख अंग स्त्री-पुरुषों के वस्त्राभूषणों, श्रृंगार-प्रसाधनों एवं रहन-सहन 1. कुशललाभः स्थूलिभद्र छतीसी, सप्त सिंधु, मार्च 1978 (पृ. 13-22, 26) लेखक द्वारा संपादित)

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128