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मध्यकालीन राजस्थानी जैन रचनाओं में......संदर्भ (वि.सं. 1600 - वि.सं. 1900)
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"ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य नर सुध, वरण चारि वसई अठाई ।
आप अपनी धरम करनी करइ, पर नइ पीड़ा करता डरई ॥" जाति प्रथा
वैदिक यग से विकसित हई यही वर्ण-व्यवस्था कालान्तर में विभिन्न जातियों में परिवर्तित हो गई। परिणामतः जनमानस में ऊंच-नीच, छूआछूत की भावनाएं भी पल्लवित हुई और छोटी-बड़ी जातियों का उद्भव हुआ। जैन कवि केशव की सदैयवत्स सावालिंगा चौपई वि.सं. 1693, समय सुन्दर की नलराज चौपाई में धोबी, ब्राह्मण, वैश्य, कुम्हार, कलावंत ढाढी, पुरोहित, कोली, कायस्थ, कावड़िया, लोहार, जोगी, काछी, दोसी, गांधी, तंबोली, चोर, जाट, धोबी, मोची, कंदोई आदि जातियों का उल्लेख मिलता है। इनकी उत्पत्ति के संदर्भ में इन रचनाओं में कहीं संकेत नहीं मिलते। हां, कुछेक जातियों के स्वभाव के विषय में अवश्य लिखा गया है
“महाजन लोक धाएमति रा सुखी, चोर, जार, चुगलते दुखी कंदोई, काठी, सोनार, कुम्हार, माली, मरदीया सुतार, तड़सावंत, तंबोळी सार, नव मड नारु कच ठठार घांची मोची बसइ अपार, करण च्यार नव नारु सार ।।
(समय सुन्दर-नलराज चौपाई) आश्रम-व्यवस्था
भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय का बड़ा महत्व है। राजस्थानी की इन जैन रचनाओं में भी आश्रम-व्यवस्था-संबंधी संदर्भ मिलते हैं। जैन कवि विनयचंद्र की 'उत्तम कुमार चौपाई' में उल्लेख है कि राजा मकरध्वज उत्तमकुमार को राज्य सौंप कर वानप्रस्थाश्रम ग्रहण कर लिया। इसी भांति कुशललाभ कृत भीमसेन हंसराज चौपई में भी अपने पुत्र को राज्य सौंप कर जैन गुरुओं से दीक्षा ग्रहण कर संन्यास आश्रम में प्रवेश का संदर्भ जैन समाज के अनुकूल मिलता है
__ “आव्यउ मनि वैराग्य अपार, सहू अथिर जाणड संसार
राज हंस नह आथउराज कीधा बहु धर्म का काज ।। समयसुन्दर की रचना मलयसुंदरी कथा में राजा महाधवल भी अपने पुत्र महाबल को राज्य सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करता है।