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राजस्थानी जैन साहित्य की रूप- परम्परा
उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होने संवाद, कक्का, बत्तीसी, मातृका, बावनी, कुलक, हियाली, हरियाली, गूढ़ा, पारणी, सलोक, कड़ी, कड़ा इत्यादि साहित्यिक विधाओं को ग्रहण किया । इनमें से उल्लेखनीय विधाओं का परिचय इस प्रकार है
(14) संवाद :
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इनमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को हेय बताते हुए अपने पक्ष को सर्वोपरि रखते हैं । दोनों ही पक्षों की मूलभावना सम्यक्ज्ञान करवाना है। कुछ संवाद जैनेत्तर विषयों पर भी है । संवाद संज्ञक रचनाएं 14 वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं । कुछ उल्लेखनीय संवाद निम्नलिखित हैं- आंख - कान संवाद, यौवन - जरा संवाद (सहजसुंदर), कर-संवाद, रावण-मंदोदरी संवाद, गोरी-सांवली संवाद - गीत ( लावण्यसमय), जीभ-संवाद, मोती-कपासिया संवाद (हीरकलश), सुखड़ पंचक संवाद (नरपति) इत्यादि हैं। 1
(15) कक्का-मातृका - बावनी- बारहखड़ी :
ये सभी नाम परस्पर पर्याय हैं । इनमें वर्णमाला के बावन अक्षर मानकर प्रत्येक वर्ग के प्रथम अक्षर से आरम्भ कर प्रासंगिक पद रचे जाते हैं। बावनी नाम इस संदर्भ में 16 वीं शताब्दी से प्रयोग में आया है। ऐसी प्रकाशित कुछ रचनाएं हैं-छीहल बावनी?, डूंगर बावनी (पद्मनाभ ) 3, शीलबावनी (मालदेव) 4, जगदम्बा बावनी (हेमरत्न सूरि) 15
(16) कुलक या खुलक :
जिस रचना में किसी शास्त्रीय विषय की आवश्यक बातें संक्षेप में संकलित की गई हो अथवा किसी व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय दिया गया हो ऐसी रचनाएं कुलक कही जाती है । 16 वीं - 17 वीं शताब्दी के कतिपय कुलक इस प्रकार हैं- ब्रह्मचर्य
1. डा. माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ. 245
अनुप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर, हस्तलिखित प्रति संख्या 282/2 (झ)
श्री अभय जैन ग्रंथमाला, बीकानेर हस्तलिखित प्रति
राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग 2
डा. माहेश्वरी – राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ. 266
नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष 58, अंक 4, सं. 2010
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