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गाथा संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या नाम कर्मोदय ये शरीर की रचना होती है, जीव शरीर का कर्ता नहीं है। ४०७-०८
औदारिक आदि पाँचो शरीर पुद्गल द्रव्यात्मक, हैं जो जीव स्वरूप नहीं है ४०८-१० १७२ जीव के अरस अरूप आदि लक्षण, आत्मा विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन
ज्ञान के द्वारा हो अनुभव में आता है तथा वीतराग स्वसंवेदनज्ञान से ही जाना जाता है
४१०-१५ मूर्तिक पुगलों का तो बंध सम्भव है किन्तु अमूर्त आत्मा पुद्गलों को कैसे बांध सकता है ?
४१५-१६ अमृत आत्मा जैसे मूर्त द्रव्यों को तथा रूपादि गुणों को देखता है जानता है, उसी प्रकार मूर्त पुद्गलों के साथ बंधता है
४१६-१८ निश्चय नय से जीव अमूर्तिक है तथापि अनादि कर्म बं वशात् व्यवहारनय से
मुर्तिक है । कमों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, संश्लेष सम्बन्ध हैं। ४१६-२० १७५ जीव और 'भावकर्म (राग द्वेष आदि) इन दोनों का परस्पर बंध है अर्थात् जीव
अपने भावों के साथ बंधा हैं,राग द्वष मोह परिणामभाव बंध हैं भावबंध से होने वाले द्रव्यबध का स्वरूप
४२१-२३ १७७ स्पर्श आदि के साथ पुदगल का बंध अथवा पूर्व और नवतर कर्मों का परस्पर
बंध पुद्गलबंध, रागादि भावों के साथ जीव का बंध, अन्योन्य अवगाह रूप जीव-पुद्गल बंध हैं
४२३-२४ १७८ आत्म प्रदेशों में कर्मवर्गणा योग के अनुसार प्रवेश करते है, ठहरते हैं तथा उदय
होकर जाते और पुनः बंधते हैं मन, वचन, काय वर्गणा के आलम्बन से और वीर्यान्त राय के क्षयोपशम से जो आत्म प्रदेशों का सकम्पपन है वह योग हैं ४२४-२६ रागी आत्मा कर्म बांधता है, राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है ४२६-२७ मोह और द्वेष अशुभ है राग शुभ अशुभ दोनों प्रकार का है।
जिनेन्द्रभवित का शुभराग मात्र बन्ध का कारण नहीं मोक्ष का भी कारण है ४२७-२६ १८१ __ शुभ परिणाम पुण्य है, अशुभ परिणाण पाप है, शुभ अशुभ से रहित परिणाम
संसार दुःन के क्षय का कारण है वस्तु के एक देश की परीक्षा यह नय का लक्षण है 'समाधि लक्षण शुद्धोपयोग' एक देश आवरण रहित होने से क्षायोपमिक खंड ज्ञान की व्यक्ति रूप है। शुद्ध पारिणामिकभाव सर्व आवरण से रहित होने ये अखण्ड ज्ञान को व्यक्ति रूप है । अतः शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येय रूप है ध्यान रूप नहीं है शुभ परिणाम से संबर व निर्जरा तथा मोक्ष का कारण ४३०-३३ पृथ्वी आदि स्थावर व त्रस जीव शुद्ध चतन्य स्वभाव वाले जीव से भिन्न हैं क्योंकि पृथ्वी आदि कर्मोदय से होने के कारण अचेतन है
४३३-३४
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