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( १३ ) तथा मध्यम और उत्तम वर्ग की स्त्रियों की भाषा शौरसेनी है। योद्धा और नागरिकों की भाषा दाक्षिणात्या है। परन्तु यह भाषा भी प्रयुक्त हुई दृष्टिगोचर नहीं होती। विश्वनाथ ने बालकों की बोली का विधान करते हुए लिखा है कि बालक कभी-कभी संस्कृत भी बोलते हैं। परन्तु किसी भी नाटक में कोई बालक संस्कृत बोलता नहीं पाया जाता । कवियों ने उपर्युक्त नियम का बिलकुल पालन नहीं किया है।
ऐश्वर्य से पागल, दरिद्र, भिक्षु एवं वल्कल धारण करने वाले पुरुषों की भाषा प्राकृत बतलाई गई है। पर उत्तम संन्यासियों के लिए संस्कृत का विधान है। कभी-कभी वेश्या के लिए भी संस्कृत भाषा के व्यवहार का विधान है।
साहित्यदर्पण के अनुसार व्यापक नियम यह है कि जिस पात्र के देश की जो भाषा है, वह उसी को बोलता है और कार्यवश उत्तम आदि पात्र भाषा का परिवर्तन भी करते हैं
'यद्देश्यं नीचपात्रं तु तद्देश्यं तस्य भाषितम् ।
कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यो भाषा-विपर्ययः ॥' भाषा का परिवर्तन करना मुद्राराक्षस आदि नाटकों में पाया जाता है। '- स्त्री, सखी, बालवेश्या, धूर्त तथा अप्सराये अपनी चतुरता प्रदर्शित करने के लिए बीच में संस्कृत बोल सकती हैं
'योषित्-सखी-बालवेश्याकितवाप्सरसां तथा।
वैदग्ध्यार्थं प्रदातव्यं संस्कृतं चान्तराऽन्तरा ॥' ___ कर्णसुन्दरी में सखी और नायिका, कंसवध में दौवारिक और कुब्जा तथा सुभद्राहरण में नटी भी विदग्धता दिखलाने के लिए संस्कृत भाषा बोलती हैं।
मालविकाग्निमित्र में परिव्राजिका कार्यवश संस्कृत बोलती है।
वाह्रीक भाषा जो उत्तर-देशवासियों के लिए और द्राविड़ी जो द्रविड-देशवासियों के लिए कही गई है, उनका नाटकों में कहीं भी अस्तित्व देखने में नहीं आता-'वाहीकभाषोदीच्यानां द्राविडी द्रविडादिषु' (साहि० ६, १६२)।