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चक्रवाक आदि से बातचीत करते हुए महाराष्ट्री और अपभ्रंश का भी प्रयोग किया है। चौथे अङ्क के ६, ११, १४, १९, २०, २४, २८, २९, ३५, ३६, ४१, ५३, ५४, ५९, ६३, ६८, ७१ और ७५ संख्यावाले श्लोकों को महाराष्ट्री तथा १२, ४३, ४५, ४८ और ५० संख्यावाले श्लोकों को अपभ्रंश भाषा में कहते हैं । यथा
राजा
- 'मम्मररणिअमणोहरए; कुसुमिअतरुवरपल्लविए । दइआविरहुम्माइअओ; काणणं भमइ गइंदओ ॥ ' [ मर्मररणितमनोहरे कुसुमिततरुवरंपल्लविते । दयिताविरहोन्मादितः कानने भ्रमति गजेन्द्रः ॥ ] (famo 2134) 'हउं परं पुछिछमि अख्खहि गअवरु; ललिअपहारे णासि अतरुवरु | दूरविणिजिअ - ससहरु कन्ती, दिट्ठी पिअ पद्मं संमुह-जन्ती ॥' [ अहं त्वां पृच्छामि आचच्च गजवर; ललितप्रहारेण नाशिततरुवर । दूरविनिज्जित- शशधर - कान्तिर्दृष्टा प्रिया त्वया संमुखं यान्ती ॥ ] पिछले पृष्ठ के वर्णित दोनों श्लोक क्रमशः महाराष्ट्री और अपभ्रंश भाषा के हैं ।
कचुकी की बोली संस्कृत भाषा में पाई जाती है । इसका पाठ अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, उत्तररामचरित, प्रतिमा, मुद्रा - राक्षस, मालविकाग्निमित्र तथा वेणी-संहार आदि नाटकों में आया है ।
प्रतीहारी, चेटी, तापसी आदि की बोली शौरसेनी में है । ये पात्र प्रायः सभी नाटकों में आये हैं । दौवारिक की भाषा भी शौरसेनी ही पाई जाती है । परन्तु कंसवध में हेमाङ्गद नाम के एक दौवारिक ने एक स्थान पर एक श्लोक संस्कृत में भी कहा है । सुभद्राहरण, अभिज्ञानशाकुन्तल आदि अनेक नाटकों में दौवारिक का पाठ है ।
अभिज्ञानशाकुन्तल में रक्षियों ( सिपाहियों ), धीवर और शकुन्तला के पुत्र की ; चारुदत्त में शकार की; मृच्छकटिक में शकार, वेट, चारुदत्त के पुत्र, संवाहक और भिक्षु की; वेणीसंहार में राक्षस,
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