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ढक्क भाषा पृथ्वीधर के अनुसार मृच्छकटिक में माथुर और द्यूतकर की बोली है । ढक्क शब्द से जान पड़ता है कि यह ढाका के आस-पास की भाषा थी ।
चाण्डालों की भाषा चाण्डाली तथा शबरों की भाषा शाबरी कहलाती थी । अस्तु ।
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शूद्रक के मृच्छकटिक में प्राकृत के नाना प्रकार देखने में आते हैं । अन्य नाटकों में महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी ये तीन ही भाषायें पाई जाती हैं । किसी-किसी नाटक में एक पात्र चाण्डाल भी है जो चाण्डाली बोलता है । मृच्छकटिक में अन्य प्राकृत के अतिरिक्त ढक्क और आवन्ती भी आती हैं । माथुर तथा द्यूतकर ढक्क और वीरक तथा चन्दनक आवन्ती भाषा बोलते हैं । विदूषक की भाषा किसी-किसी के विचार से प्राच्या है । कर्णपूरक और वीरक के पद्य महाराष्ट्री में हैं । नटी, मैत्रेय, वसन्तसेना, चेटी, रदनिका, मदनिका, कर्णपूरक आदि के गद्य की भाषा शौरसेनी है । शकार, चेट, चारुदत्त का लड़का और भिक्षु की बोली, मागधी में है।
प्राकृत भाषा में कर्पूरमञ्जरी नामक एक ही सहक है । इसमें महाराष्ट्री और शौरसेनी दो ही भाषायें हैं । जितने पद्य हैं, वे सब महाराष्ट्री में और जितने गद्य हैं सब शौरसेनी में लिखे गये हैं । कहींकहीं इन दोनों की खिचड़ी भी दिखाई पड़ती है । जैसे— 'गेण्हिअ के' स्थान पर 'वेत्तण' का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अनेक स्थलों पर ऐसे उदाहरण मिलते हैं । मालूम नहीं, यह कवि का प्रमाद है या छापेखानों की भूल । कर्पूरमञ्जरी के अनेक संस्करण निकल चुके हैं परन्तु प्राकृत भाषा की दृष्टि से 'हारवार्ड ओरिएण्टल सीरीज' द्वारा संपादित तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित संस्करण सर्वोत्तम है ।
संस्कृत नाटकों में प्राकृत की दृष्टि से मृच्छकटिक के अतिरिक्त विक्रमोर्वशीय, अभिज्ञानशाकुन्तल, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस, उत्तररामचरित आदि प्रसिद्ध नाटक हैं ।